Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 415
________________ ४०४ श्राविधि प्रकरण प्रति संवत्सर ग्राह्य, प्रायश्चित्तं गुरोः पुरः। शोयमानो भवेदात्मा, येनादर्श इवोज्वलः ॥१॥ मेधते हुए याने शुद्ध करते हुए आत्मा दर्पण के समान उज्वल होती है। इसलिये प्रति वर्ष अपने गुरुके पास अपने पापकी आलोयणा-प्रायश्चित्त लेना । आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि चाउमासिम वरिसे, आलोभ निमसोउ दायवा। ___गहणं अभिम्गहाणय, पुन्वग्गहिए निवेएउ॥१॥ चातुर्मास में तथा वर्षमें निश्चय ही अलोयण लेना चाहिये। नये अभिग्रहों को धारण करना और पूर्व ग्रहण किये हुए नियमों को निवेदित करना। याने गुरुके पास प्रगट करना। श्राद्ध जितकल्प वगैरह में आलोयण लेनेकी रीति इस प्रकार लिखी हैपख्खिन चाउम्पासे, बरिसे उक्कोस ओम बारसहि। निश्रमा पालोइज्जा, गीमाइ गुणस्स भणिनं च ॥१॥ निश्चय से पक्षमें, चार महीने में, या वर्षमें या उत्कृष्ट से बारह वर्षमें भी आलोपण अवश्य लेनी चाहिए । गीतार्थ गुरुकी गवेषणा करने के लिये बारह वर्षकी अवधि बताई हुई है। सल्लुदरण निमित्तं, खितमि सत्त जोपणसयाइ । ___काले वारस वरिसं, गीअथ्य गवेसणं कुज्जा ॥२॥ पाप दूर करने के लिये क्षेत्रसे सातसौ योजन तक गवेषण करे, कालसे बारह वर्ष पर्यन्त गीतार्थ गुरुपी गवेषणा करे। अर्थात् प्रायश्चित्त देनेसे योग्य गुरुकी तलाशमें रहे। गीभथ्यो कडजोगी, चारिती तहय गाहणा कुसलो। खेअन्नो अविसाई, भणियो पालोयणायरिभो॥३॥ निशीथादिक श्रुतके सूत्र और अर्थको धारण करने वाला गीतार्थ कहलाता है । जिसने मन, वचन, कायाके योगको शुभ किया हो या विविध तप वाला हो वह कृत योगी कहलाता है, अथवा जिसने विविध शुभ योग और ध्यानसे, तपसे, विशेषतः अपने शरीर को परिकर्मित किया है उसे कृतयोगी कहते हैं। रितिचार चारित्रवान हो, युक्तियों द्वारा आलोयणा दायकों के विविध तप विशेष अंगीकार कराने में कुशल हो उसे ग्रहणा कुमाल कहते हैं। सम्यक् प्रायश्चित्त की विधिमें परिपूर्ण अभ्यास किया हुआ हो और आलोयणा के सर्व विचार को जानता हो उसे खेदज्ञ कहते हैं। आलोपण लेने वालेका महान अपराध सुनकर स्वयं खेद न करे परन्तु प्रत्युत उसे तथा प्रकार के बैराग्य बचनों से आलोयणा लेनेमें उत्साहित करे। असे अविखादी कहते हैं। जो इस प्रकार का गुरु हो, उसे आलोपणा देने लायक समझना। वह आलोचनाचार्य कहलाता है। भायार व माहार वं, ववहारुब्बीलए पकुव्ववीय । अपरिस्सावी निज्जव, अवाय दंसी गुरु भणिमो॥४॥

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