Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 419
________________ ४०६ श्राद्धविधि प्रकरण "आलोयणा लेनेसे लाभ लहुभा रहाई जणणं, अप्पपर निवत्ति अवज्जवं सोही। दुर कक्करणं प्राणा, निस्सलतं च सोहीगुणा ॥ १३॥ १ जिस प्रकार भार उठाने वालेका भार दूर होनेसे शिर हलका होता है वैसे ही शल्य पापका उद्धार होनेसे-आलोचना करने से आलोयण लेने वाला हलका होता है याने उसके मनको समाधान होता है । २ दोष दूर होनेसे प्रमोद उत्पन्न होता है । ३ अपने तथा परके दोषकी निवृत्ति होती है। जैसे कि आलोयण लेनेसे अपने दोषकी निवृत्ति होना तो स्वाभाविक ही है परन्तु उसे आलोयण लेते हुए देख अन्य मनुष्य भी ओलो. यण लेनेको तय्यार होते हैं। ऐसा होनेसे दूसरों के भी दोषकी निवृत्ति होती है। ४ भले प्रकार आलोयण लेनेसे सरलता प्राप्त होती है। ५ अतिवार रूप मैलके दूर होनेसे आत्माकी शुद्धि होती है ६ दुष्कर कारकता होती है जैसे कि जिस गुणका सेवन किया है वही दुष्कर है, क्योंकि अनादि कालमें वैसा गुण उपार्जन करने का अभ्यास ही नहीं किया, इस लिये उसमें भी जो अपने दोषकी आलोचना करना है याने गुरुके पास प्रगट करना है सो तो अत्यन्त ही दुष्कर है। क्योंकि मोक्षके सन्मुख पहुंचा देने वाले प्रबल वीर्योल्लास की विशेषता से ही वह आलोयण ली जा सकती है । इसलिये निशीथ की चूर्णीमें कहा है कि तब दुक्कर जं पडिसे वीज्जई, तं दुक्कर जं सम्यं पालोइज्जइ॥ जो अनादि कालसे सेवन करते आये हैं उसे सेवन करना कुछ दुष्कर नहीं है परन्तु वह दुष्कर है कि जो अनादि कालसे सेवन नहीं की हुई आलोयणा सरल परिणाम से ग्रहण की जाती है। इसीलिये अभ्यन्तर तपके भेद रुप सम्यक् आलोयणा मानी गयी है । लक्ष्मणादिक साध्वीको मास क्षपणादिक तपसे भी आलोयण अत्यन्त दुष्कर हुई थी। तथापि उसकी शुद्धि सरलता के अभाव से न हुई। इसका दृष्टान्त प्रति वर्ष पर्युषणा के प्रसंग पर सुनाया ही जाता है। ससल्लो जइवि कुठठुग्गं, घोरं वीर तब चरे। दीव्वं वाससहस्सं तु, तमोतं तस्स निष्फलं ॥१॥ ___ यदि सशल्य याने मनमें पाप रख कर उग्र कष्ट वाला शूर वीरतया भयंकर घोर तप एक हजार वर्ष तक किया जाय तथापि वह निष्फल होता है। जह कुसलो विहु विज्जो, अन्नस्स कहेइ अप्पणो वाही। ___ एवं जाणं तस्सवि, सल्लुद्धरणं पर सगासे ॥२॥ वाहे जैसा कुशल वैद्य हो परन्तु जब दूसरे के पास अपनी व्याधि कही जाय तब ही उसका निवारण हो सकता है। वैसे ही यद्यपि प्रायश्चित्त विधानादिक स्वयं जानता हो तथापि शल्यका उद्धार दूसरे से ही हो सकता है। __तथा आलोयणा लेनेसे तीर्थंकरों की आज्ञा पालन की गिनी जाती है। ८ एवं निःशल्यता होती है यह तो स्पष्ट ही है । उत्तराध्ययन के २६ वै अध्ययन में कहा है कि

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