Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 410
________________ श्राद्धविधि प्रकरण રેટર્સ स्थान वगैरह से श्री संघको प्रथमसे ही विदित करे। मार्गमें चलती हुई गाड़ियां वगेरह सर्व यात्रियों पर नजर रक्खे यानी उनकी सार सम्हाल रक्खे। रास्तेमें आने वाले गामोंके मन्दिरों में दर्शन, पूजा प्रभावना करते हुये जाय और जहां कहीं जीर्णोद्धार की आवश्यक्ता हो वहांपर यथाशक्ति वैसी योजना करावे। जब तीर्थका दर्शन हो तब सुवर्ण चांदी रत्न मोतो वगैरह से तीर्थकी आराधना करे, सार्मिक वात्सल्य करे और यथोचित दानादिक दे। पूजा पढ़ाना, स्नात्र पढ़ाना, मालोद्धाटन करना महाध्वजा रोपण करना, रात्रि जागरण करना, तपश्चर्या करना, पूजाकी सर्व सामग्री चढ़ाना, तीर्थरक्षकों का वहुमान करना तीर्थकी आय बढ़ानेका प्रयत्न करना इत्यादि धर्मकृत्य करना । तीर्थयात्रा में श्रद्धा पूर्वक दान देनेसे बहुत फल होता है जैसे कि तीर्थंकर भगवान के आगमन मात्र को खबर देने वालेको चक्रवर्ती वगैरह श्रद्धावंतों द्वारा साढ़े बारह करोड़ सुवर्ण मुद्रायें दान देनेके कारण उन्हें महालाभ की प्राप्ति होती है। कहा है किबिस्तीइ सुवनस्सय, वारस श्रद्धच सय सहस्साइ। तावइ अं चिकोडी, पीइ दाणंतु चक्तिस्स ॥ साडे बारह लाख सुवर्ण मुद्राओंका प्रोतिदान वासुदेव देता है। परन्तु वक्रवती प्रीतिदान में साडे बारह करोड़ सुवण मुद्राएं देता है। इस प्रकार यात्रा करके लौटते समय भी महोत्सव सहित अपने नगरमें प्रवेश करके नवग्रह दश दिक्पालादिक देवताओं के आराधनादिक करके एक वर्ष पर्यन्त तीर्थोपवासादिक तप करे। याने तीर्थ यात्राको जिस दिन गये थे उस तिथिको या तीर्थका जब प्रथम दर्शन हुआ था उस दिन प्रति वर्ष उस पुण्य दिनको स्मरण रखनेके लिये उपवास करे इसे तीर्थतप कहते हैं। इस प्रकार तीर्थ यात्रा बिधि पालन करना। विक्रमादित्य की तीर्थयात्रा श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि प्रतिबोधित विक्रमादित्य राजाके श्री शत्रुजय तीर्थकी यात्रार्थ निकले हुए संघमें १६७ सुवर्ण के मन्दिर थे, पांचसो हाथीदांत के और चंदनमय मंदिर थे। श्री सिद्धसैन सूरि आदि पांच हजार आवार्य उस संघमें यात्रार्थ गये थे। चौदह बड़े मुकुटबद्ध राजा थे। सत्तर लाख श्रावकोंके कुटुंब उस संघमें थे। एक करोड़ दस लाख नव हजार गाड़ीयां थीं ! अठारह लाख घोड़े थे। छहत्तर सौ हाथी थे, एवं खच्चर, ऊंट वगैरह भी समझ लेना। इसी प्रकार कुमारपाल, आभू संघपति, तथा पेथड़ शाहके संघका वर्णन भी समझ लेना चाहिए। राजा कुमारपाल के निकाले हुए संघमें अठारह सौ चुहत्तर सुवर्णरत्नादि मय मन्दिर थे। इसी प्रमाणमें सय सामग्री समझ लेना। थराद के पश्चिम मंडलिक नामक पदवीसे विभूषित आभू नामा संघपति के संघमें सात सौ मंदिर थे। उस संघमें बारह करोड़ सुवर्ण मुद्राओंका खर्च हुआ था। पेथड़शाह के संघमें ग्यारह लाख रुपियोंका खर्च हुआ था। तीर्थका दर्शन हुआ तव उसके संघमें बावन मन्दिर थे और सात लाख मनुष्य थे।

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