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श्राद्धविधि प्रकरण तप, दवयंतीतप, भद्र प्रतिमा, महाभद्र प्रतिमा, संसार तारणतप, अठाईतप, पक्षक्षपण, मासक्षपणादि विशेष तप करना। रात्रिके समय बौविहार तिविहार का प्रत्याख्यान करना। पर्वके दिन विगयका त्याग पोसह उपवासादि करना । पारनेके दिन संविभाग अतिथि-संविभाग करना वगैरह अभिग्रह धारण करना चाहिये । नीचे चातुर्मासिक नियमके लिये पूर्वाचार्य संग्रहित कितनी एक उपयोगी गाथायें दी जाती हैं। चाउम्पासि अभिग्गह, नाणे तहदंसणे चरित्रोभ।
तवधिरि आयाम्भिभ, दव्वाइ भणेगहाहुन्ति ॥१॥ ज्ञान सम्बन्धी दर्शन सम्बन्धी, चारित्र संबन्धी, तप सम्बन्धी, वीर्याचार सम्बन्धी, द्रव्यादिक अनेक प्रकार के चातुर्मासिक अभिग्रह-नियम होते हैं । ज्ञानाभिग्रह भी धारण करना चाहिये। परिवाडी समझामो, देसण सवणं च चिंतणी चेव ।
__ सचीए काययं, निऊ पंचपि नाण पूाय ॥२॥ जो कुछ पढ़ा हुआ हो उसका प्रथम से अन्त तक पुनरावर्तन करना, उपदेश देना, अपूर्व ग्रन्थोंका श्रवण करना, अर्थ चितवन करना, शुक्लापंचमी को ज्ञानपूजा करना, शक्ति पूर्वक ज्ञान सम्बन्धी नियम रखना। दर्शन के विषयमें अभिग्रह रखना चाहिये। समजणो वले वण, गुहलिमा मंडव चिइभवणे ।
चेइय पृमा वंदण, निम्मल करणं च विम्बाणं ॥३॥ मन्दिर सभारना, साफ रखना, विलेपन करना, अथवा गूंहली करनेके लिये जमीन पर गोबर, खड़ी वगैरह से उपलेपन करके उस पर मंदिर में भगवान के समक्ष गुंहली आलेखन करना, पूजा करना देव वन्दन करना, सर्व विम्वोंको उमटना करना वगैरह का नियम रखना। यह दर्शनाभिग्रह कहा जाता है।
"व्रतोंके सम्बन्धमें नियम" चारितमि जलोमा, ज्या गंडोल पाडणं चेव।
वण कीड खारदा, इन्धण नेलणन्नतस रख्खा ॥४॥ जोख लगवाना, ज, खटमल, पेट में पड़े हुए कुरने वगैरह जन्तुओं को दवासे पड़ाना, जन्तु पड़ी हुई पनस्पति का खाना, बनस्पति में क्षार लगाना, अस कायकी रक्षा निमित्त इन्धन, अग्नि वगैरह की यतना करने का नियम रखना, ये चारित्राचारके स्थूल प्राणातिपात व्रतके अभिग्रह गिने आते हैं। वज्जइ अभ्भख्खाणां, अक्कोसं तहय रुखख वयण च ।
देवगुरुसवहकरण, पेसुन्नं परपरिवायं ॥५॥ . दूसरे पर आरोप करना, किसीको कटु बचन बोलना, हलका बचन बोलना, देव गुरु धर्म सम्बन्धी कसम खामा, दूसरे की निन्दा और चुगली करना। दूसरे का अवर्णवाद बोलना, इन सबके परित्याग का नियम करे।