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श्राद्धविधि प्रकरण सामायिक में और पोसहमें रहते हुये जीवका जो समय व्यतीत होता है वह साल समझना । जो अन्य समय व्यतीत होता है वह संसार फलका हेतु है याने संसार वर्धक है।
दिनके पोषहका विधि भी उपरोक्त प्रकारसे ही जानना परन्तु उसमें इतना विशेष समझना कि "नाव दिवसं पज्जुवा सामि" ऐसा पाठ पढ़ना। देवसी आदि प्रतिक्रमण किये बाद पारना ।
रात्रिका पोषध भी इसी प्रकार लेना परन्तु उसमें भी इतना विशेष जानना कि दोपहर के मध्यान्ह से लेकर यावत् दिनका अन्तर्मुहूर्त रहे तबतक लिया जा सकता है। इसी लिये “दिवस सेलरात्रि पज्जु वासामि" ऐसा पाठ उच्चार किया जाता है।
यदि पोषध पारनेके समय मुनिका योग हो तो निश्चयसे अतिथि संबिभाग व्रत करके पारना करना
चौथा प्रकाश . ॥ चातुर्मासिक कृत्य ॥
मूलार्ध गाथा। पड़ चौमासं समुचिअ । नियमग्गहो पाउसे विसेसेण ॥ जिस मनुष्यने हरएक नियम अंगीकार किया हो उसे उसी नियमको प्रति चातुर्मास में संक्षिप्त करना चाहिये । जिसने अंगीकार न किया हो उसे भी प्रति चातुर्मास में योग्य नियम अभिग्रह विशेष ग्रहण करना चाहिये । वर्षाकाल के चातुर्मास में विशेषतः नियम ग्रहण करने चाहिये। उसमें भी जो नियम जिस समय अधिक फलदायक हो और नियम अंगीकार न करनेसे अधिक विराधना होती हो तथा धर्मकी निंदाका भी दोष लगे वह समुचित न समझना। जैसे कि वर्षा के दिनोंमें गाड़ी चलाना, वगैरह का निषेध करना, बादल
या वृष्टि वगैरह होने के कारण ईलिका वगैरह जीवकी उत्पत्ति होनेसे खिरनी, (रायण ) आम वगैरहका परि. • त्याग करना । इसा प्रकार देश, नगर, ग्राम, जाति, कुल, वय, वगैरह की अपेक्षासे जिसे जैसा योग्य हो वैसा ग्रहण करे। इस तरह नियमकी समुचितता समझना।
नियमके दो प्रकार हैं । १ दुनिर्वाह, २ सुनिर्वाह । उसमें धनवन्तको (व्यापार की व्यग्रता वाले को) अविरति श्रावकोंको, सचित्त रस शाकका त्याग, प्रतिदिन सामायिक करना वगैरह दुनिर्वाह समझना और पूजा दानादिक धनवन्त के लिए सुनिर्वाह समझना। निर्धन श्रावकके लिए उपरोक्तसे बिपरीत समझना। यदि चित्तकी एकाग्रता हो तो चक्रवर्ती शालिभद्रादिक को दीक्षाके कष्टके समान सबको सर्व सुनिर्वाह ही है। कहा है कि, तातुगो मेरु गिरि मयर हरो ताव होइ दुरुचारो॥
ताविसमा कज्जगई जाव न धीरा पवज्जन्ति ॥