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श्राद्धविधि प्रकरण
१८५ तथा देवसम्बन्धी, ज्ञानसम्बन्धी, और साधारण सम्बन्धी जो कुछ घर, दुकान, खेत, बाग, पाषाण, ईट, काष्ठ, बाँस, खपरैल, मिट्टी, खड़ो, चूना, रंग, रोगन, चन्दन, केसर, बरास, फूल, छाव, रकेबी, धूप धाना, कलश, वासकुम्पी, बालाकूची, छत्र, सिंहासन, ध्वजा, चामर, चन्द्रवा, झालर, नंगारा, मृदंग, बाजा, समापना, सरावला, पडदा, कम्बलियां, वस्त्र, पाट, पाटला, चौकी, कुम्भ, आरसी; दीपक ढांकना, दियेसे पड़ा हुवा काजल, दीपक, मन्दिरकी छत पर नालसे पडता हुवा पानी, वगैरह कोई भी वस्तु अपने घर कार्यके उपयोग में कदापि न लेना। जिस प्रकार देव दृव्य उपयोग में लेना योग्य नहीं वैसे ही उपरोक्त पदार्थके जरा मात्र अंशका भी उपयोग एक वार या अनेक वार होनेसे भी देवद्रव्य के उपभोग का दोष अवश्य लगता है । यदि चामर, छत्र, सिंहासन समियाना, वगैरह मन्दिरकी कोई भी वस्तु अपने हाथसे मलीन हो या टूट फूट जाय तो बड़ा दोष लगता है । उपरोक्त मन्दिरकी कोई भी वस्तु श्रावकके उपयोग में नहीं आ सकती इस लिए कहा है कि
विधाय दीपं देवानां । पुरस्ते न पुनर्नहि ॥
गृह कार्या कार्याणि । तीयंचोपि भवेद्यतः ॥ घर मन्दिरमें भी देवके पास दीपक किये वाद उस दीपकसे कुछ भी घरके काम न करना । यदि करे तो वह प्राणी मर कर तिर्यंच होता है।
"देव दीपकसे घरका काम करनेमें ऊंटनीका दृष्टान्त" इन्द्रपुर नगरमें देवसेन नामक एक गृहस्थ रहता था। उसका धनसेन नामक ऊंट संभालने वाला एक नौकर था। उस धनसेन के घरसे एक ऊंटनी प्रतिदिन देवसेन के घर आ खड़ी रहती थी। धनसेन उसे बहुत मारता पीटता परन्तु देवसेन का घर वह नहीं छोडती थी। कदापि मार पीट कर उसे धनसेन अपने घर लेजाय
और चाहे जैसे बन्धनसे बांधे तो उसे तोड़ कर भी वह फिर देवसेनके घर आ खड़ी रहती। कदाचित् ऐसा न बन सके तो वह धनसेन के घर कुछ नहीं खाती और डकरा कर सारे घरको गजमजा देती थी। अन्तमें देवसेन के घर आवे तब ही उसे शान्ति मिलती। यह देखाव देख कर देवसेन ने उसका मूल्य दे कर उसे अपने घरके आंगन आगे बांध रक्खी । वह देवसेन को देख कर बड़ी ही प्रसन्न होती। ऐसे करते हुए दोनोंको अरस परस प्रीति हो गई। किसी समय ज्ञानी गुरु मिले तब देवसेन ने पूछा महाराज इस ऊंटनीका मेरे साथ क्या सम्बन्ध है कि जिससे यह मेरा घर नहीं छोड़ती और मुझे देख कर प्रसन्न होती है । गुरुने कहा कि, पूर्व भवमें यह तेरी माता थी, तूने मन्दिर में प्रभुके आगे दीपक किया था उस दीपकके प्रकाशसे इसने अपने घरके काम किये थे, तथा धूप धानामें सुलगते अंगारसे इसने एक दफा चूल्हा सुलगाया था। उस कर्मसे यह मृत्यु पाकर ऊंटनी उत्पन्न हुई है, इससे तुझ पर स्नेह रखती है कहा है कि:
जो जिणवराण हेउ। दीवं धूबं च करिअ निकज्ज ॥ मोहेण कुणई मूढो । तिरिअत्तं सो लहइ बहुसो॥