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श्राद्धविधि प्रकरण पड़ी भारी उम्मेद थी, तदर्थ उसने बहुत सी तैयारियां भी पहलेसे की हुई थीं, कितने एक नये मणिमुक्ताफल के नवसरा हार, हीरे रत्नसे जडित कितने एक नये आभूषण एवं कितने एक नये २ भांतिके उत्तम वस्त्र भी कराये हुवे थे तथा अन्य भी कई प्रकारकी तैयारियां कराई हुई थीं परन्तु कानशीब से महोत्सव के दिन कभी राजद्रवार में अकस्मात् शोक आजाने से, किसी वक दीवानके घर शोक आजाने से, किसी समय नगर शेउके घर शोकका प्रसंग आनेसे, किली वक्त अपने सम्बन्धियों में शोकका कारण बन जानेसे और किसी समय अपने ही घरमें कुछ अकस्मात् उत्पन्न होनेसे उस महोत्सवका एक चिन्ह मात्र भी न बन सका इतना ही नहीं परन्तु उस बालिकाका महोत्सव करने के लिए उसके माता पिताने जो २ दिन निर्धारित किये थे उन दिनों में उन्हें खुशीके बदले उदासी ही पैदा हुई। तथा उस बालिका को पहराने के लिए जो नये घस्त्राभरण बनाये थे उन्हें सन्दूक में से बाहर निकालने का प्रसंग ही न आया। वह वालिका उसके माता पिता एवं कितने एक सगे सम्बन्धियों को हद उपरान्त मानीती और प्यारी थी। उसके सगे सम्बन्धी उस वालिकाको सम्मान देनेके लिए अपने घर लेजानेको बहुत ही तलप रहे थे परन्तु उसमें से कुछ भी न बन सका। तब इसमें क्या समझना चाहिए ? बस उस बालिकाके पूर्वभव के किये हुए अन्तराय का ही प्रसंग समझना चाहिये। शास्त्रमें किसी नीतिज्ञ पुरुषने कहा है:
सायर तुझ न दोषो अम्माण पुब्ब कम्माणं हे सागर ! तुझमें रत्नोंका समुदाय भरा हुवा है, परन्तु मैंने तेरे अन्दर हाथ डाल कर रत्न निकालने का उद्यम किया तथापि मेरे हाथमें रत्नके बदले पत्यर आया, इससे मैं समझता हूं कि, यह तेरा दोष नहीं परन्तु मेरे पूर्वभवकृत कर्मका ही दोष है।
. अतः यह सब इस बालिकाके कर्मका ही दोष है ऐसा समझा जाता है। वालिका का नाम लक्ष्मीवती रक्खा है। जब उसके माता पिताके सर्व मनोरथ निष्कल हो गये तब अन्तमें उन्होंने यह विचार किया कि अपने सर्व मनोरथ रद्द होगये तो क्या हुवा अब सर्व मनोरथोंका पूर्ण करनेवाला लक्षमीवती का लग्न बड़ेठाठ माठसे करके सब मनोरथोंको पूर्ण हुवा समझेंगे। ऐसा समझ कर लग्न आनेके समय आगेसे ही किसी एक महाश्रीमंत के लड़केके साथ उसका लग्न निर्धारित कर लग्नकी तमाम तैयारी करनी शुरू की। सर्व मनोरथ पूर्ण करनेकी आशासे तैयारीमें कुछ बाकी न उठा रख कर लग्नके महोत्सव का आडम्बर पहिले से ही अत्यन्त सुन्दर करना शुरू किया। परन्तु दैवयोगसे मंडप मुहूर्त हुये बाद तुरन्त ही उस लक्ष्मीवतीकी माता अकस्मात् मरनेके शरण होगई । जिससे अत्यन्त आडम्बर की तो बात ही क्या परन्तु अन्तमें उसका महोत्सव रहित गुप चुप ही पाणि ग्रहण मात्र ही लग्न करना पड़ा । लक्ष्मीवती का श्वसुर बड़ा दातार और धनाढ्य होनेसे उसने भी बड़े ठाठ माठसे लग्न करना निर्धारित किया था परन्तु क्या किया जाय ? उसके भी सर्व मनोरथ लक्ष्मीवतीके माता पिता समान ही हवाई हो गये। फिर लक्ष्मीवती को बड़े आडम्बर सहित ससुराल भेजूंगा उसके पिताने यह धारणा की। परन्तु वह समय आते हुए भी किसी २ वक्त अनेक प्रकारके शोक बीमारी वगैरह आपत्तियां आ पड़नेसे उससे कुछ भी न बन सका इसलिये उसे चुपचाप ससुराल भेजना पड़ा। जब वह