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श्राद्धविधि प्रकरण
प्रभोः प्रसादे प्राज्येपि । प्रकृतिर्नैव कोपयेत् ॥ व्यापारितश्च कार्येषु । याचेताध्यक्ष पुरुषं ॥ ३ ॥
राजाने बड़ा सन्मान दिया हो तथापि उससे अभिमानमें न आना चाहिए। यदि किसी कार्यमें उसे स्वतन्त्र नियुक्त किया हो तथापि उसके अधिकारी पुरुषोंको पूछ कर कार्य करना चाहिए, जिससे बिगड़े सुधरेका वह भी जबावदार हो सके ।
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इन युक्तियों के अनुसार राज नौकरी करना, परन्तु जो राजा जैनी हो उसकी नौकरी करना योग्य है, किन्तु मिथ्यात्वी की नहीं ।
सावय घर विरहुज्ज, चेड प्रोनाण दंसण समेप्रो । मिच्छतमोहि मई, माराया चकवट्टीवि ॥ १ ॥
ज्ञान दर्शन संयुक्त श्रावकके घरमें नौकर होके रहना श्रेष्ठ है, परन्तु यिथ्यात्वी तथा मोह विकलित मति वाला चक्रवर्ती राजा भी कुछ कामका नहीं ।
यदि किसी अन्य उपायसे आजीविका न चले तो सम्यक्त्व ग्रहण करनेसे वित्ति कंतारेणं' [ भांजीविका रूप कान्तार -- अटवी तद्र ूप दुःख दूर करनेके लिए यदि मिथ्यात्वी की सेवा चाकरी करनी पड़े तथापि सम्यक्त्व खंडित न हो ऐसे आगारकी छूट रखनेसे ) कदापि मिथ्यात्वीकी सेवा करनी पड़े तो करना । तथापि यथाशक्ति धर्म में त्रुटि न आने देना । यदि मिथ्यात्वीके वहांसे अधिक लाभ होता हो और श्रावक स्वामी वहांसे थोड़ा भी लाभ होता हो और यदि उससे कुटुम्ब निर्वाह चल सकता हो तथापि मिथ्यात्वी नौकरी न करना । क्योंकि, मिथ्यात्वी नौकरी करनेसे उसकी दाक्षिण्यता वगैरह रखनेकी बहुत ही जरूरत पड़ती है, इससे उसे नौकरी करने वालेको कितनी एक दफा व्रतमें दूषण लगे बिना नहीं रहता। यह छठी आजीविका समझना ।
सातवीं आजीविका भिक्षा वृत्ति-धातूकी, रांधे हुए धान्यकी, वस्त्रकी, द्रव्य वगैरहकी भिक्षाखे, अनेक भेदवाली गिनी जाती है । उसमें भी धर्मोपष्टम्भ मात्रके लिए ही ( धर्मको आश्रय देनेके लिए और शरीरका बचाव करनेके लिए ही ) आहार, वस्त्र, पात्रादिक की भिक्षा, जिसने सर्व प्रकार से संसारका त्याग किया हो और जो वैराग्यवन्त हो उसे ही उचित है क्योंकि, इसके लिए शास्त्र में लिखा है,
प्रतिदिन मयत्न लभ्ये, भिक्षुकजन जननिसाधु कल्पलते ।
नृपनमनि नरकवारिणि, भगवति भिते ! नमस्तुभ्यं ॥
प्रयास मिल सकनेवाली, उत्तम लोगोंको माता समान हितकारिणी, श्रेष्ठ पुरुषोंको राजा को भी नमानेवाली नरकके दुःख दूर करानेवाली हे भगवती ( हे ऐश्वर्यवती ) दूसरी भिक्षा ( प्रतिमाधर श्रावक तथा जैनमुनि सिवाय दूसरेकी भिक्षा ) तो जिसके लिए कहा है कि
ताव गुणा, लज्जा सच्च कुलकम्मोचार |
निरन्तर विना सदा कल्पलता समान, भिक्षा ! तुझे नमस्कार है । अत्यन्त नीच और हलकी है।
तारुवं