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श्राद्धविधि प्रकरण भाव हैं और निज जीवितब्य तो सुकृति पुरुष द्वारा अंगीकार किया हुआ व्रत ही समझना चाहिये। समु. द्रमें तूंबा फूट जाने पर अन्य वस्तुओं से नहीं करा जाता, क्या राजाके भाग जाने पर सुभटों से लड़ा जा सकता है, यदि वित्तमें शून्यता हो तो उसे शास्त्रसे क्या लाभ ? वैसे ही व्रत भंग हुआ तो फिर दिव्य सुखा. दिकसे क्या लाभ ? इस प्रकार विचार करके कुमार ने बहुमान से योग्य बचन बोले कि हे राक्षसेन्द्र! तुमने जो कहा लो युक्त ही है परन्तु मैंने प्रथमसे ही जव गुरुके समीप नियम अंगीकार किया तब राज्य व्यापार पाप मय होनेसे उसका परित्याग किया है। यदि यम और नियम खंडन किये जाय तो तीव दुःखोंका अनुभव करना पड़ता है। यम आयुष्य के अन्तिम भाग तक गिना जाता है और नियम जितने समय तकका अंगी. कार किया हो उतने ही समय तक पालना होता है। इस लिये जिसमें मेरा नियम भंग न हो कुछ वैसा कार्य बतला। यदि वह दुःसाध्य होगा तो भी मैं उसे सुसाध्य करूंगा। राक्षस क्रोधायमान होकर बोलने लगा कि अरे! तू व्यर्थही झूठ वोलता है पहली ही प्रार्थनामें जब तू नामंजूर होता है तब फिर दूसरी प्रार्थना किस तरह कबूल कर सकेगा। इतना बड़ा राज्य देते हुये भी त बीमारके समान मन्द होता है ! अरे मूढ बड़ी महत्ताके साथ मेरे घरमें सुख निन्द्रामें शयन करके और मुझसे अपने पैरोंके तलिये मर्दन करा कर भी मेरा वचन हित कारक भी तुझे मान्य नहीं होता तब फिर अब तू मेरे क्रोधका अतुल फल देख । यों वोलता हुआ राक्षस बलात्कार से जिस तरह गीध पक्षी मांसको लेकर उड़ता है वैसे ही कुमारको लेकर तत्काल आकाशमें उड़ा, और क्रोधसे आकुल व्याकुल हो उस राक्षसने रत्नसार कुमारको अपने आत्माको संसार समुद्र में डालनेके समान तत्काल ही भयंकर समुद्रमें फेंक दिया। फिर शीघ्र ही वहां आकर कुमारके हाथ पकड़ कहने लगा कि हे कदाग्रह के घर ! हे निर्विवार कुमार! व्यर्थ ही क्यों मरणके शरण होता है ? क्यों नहीं राजलक्ष्मी को अंगीकार करता? तेरा कहा हुआ निन्दनीय कार्य मैंने देवता होकर भी स्वीकार किया और प्रशंसनीय भी मेरा कार्य तू मनुष्य होकर भी नहीं करता! याद रख! यदि त मेरे कहे हुये कार्यको अंगीकार न करेगा तो धोवीके समान मैं तुझे पाषाणकी शिला पर पटक पटक कर यमका अतिथि बनाऊंगा। देवताओं का क्रोध निष्फल नहीं जाता, उसमें भी राक्षसोंका क्रोध तो विशेषता से निष्फल नहीं होता। यों कह कर वह क्रोधित राक्षस उसके पैर पकड़ अधोमुख करके जहां पर शिला पड़ी थी वहाँ पर पटकने के लिये ले गया। . साहसिक कुमार बोला कि तू निःसंशय तेरी इच्छानुसार कर! मुझे किसलिये बारंबार पूछता है मैं कदापि अपने व्रतको भंग न करूंगा। इस समय एक महा तेजस्वी प्रसन्न मुख मुन्द्रावाला आभूषणों से दैदीप्य. मान वहां पर वैमानिक देवता प्रगट हुआ और जलवृष्टीके समान रत्नकुमार पर पुष्प वृष्टि करके बन्दि जनकी तरह (भाट चरणके समान) जय जय शब्द बोलता हुआ विस्मयता के व्यापारमें प्रवर्तित कुमार को कहने लगा कि जिस प्रकार मनुष्योंमें सबसे अधिक चक्रवर्ती है वैसे ही सात्विक धैर्यवान् पुरुषोंमें तूसबसे अधिक है। हे कुमार! तुझे धन्य है। तेरे जैसे ही पुरुषोंसे पृथ्वीका रत्नगर्भा नाम सार्थक है । तूने जो साधु मुनिराज से प्रत अंगीकार किया है उसकी दूढतासे आज त देवताओं के भी प्रशंसनीय हुआ है। इन्द्र महाराज के सेना ।