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श्राद्धविधि प्रकरण पति हरिनगमेषी नामक देवने जो बहुतसे देवताओं के बीच में आपकी प्रशंसा की थी वह विलकुल युक्त हो है। विस्मित और प्रसन्न हो कुमार बोला कि हरिनगमेषी देवने मेरी किस लिये प्रशंसा की होगी ? वह देव बोला प्रशंसा करनेका कारण सुनो ! एक दिन नये उत्पन हुये सौधर्म और ईशान देवलोक के इन्द्र जिस प्रकार मनुष्य अपनी अपनी जमीनके लिये विवाद करते हैं वैसे ही अपने अपने विमानोंके लिये विवाद करने लगे । अनुक्रम से सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख और ईशान देव लोकके अठाईस लाख विमान होने पर भी वे दोनों इन्द्र विवाद करते थे। जब पशुओं में कलह होता है तब उसे मनुष्य निवारण करते हैं, मनुष्योंमें कलह होता है तब उसका फैसला राजा करता है, जब राजाओंमें कलह होता है तब उसका निराकरण देव. ताओं से होता है, देवताओं का कलह उनके अधिपति इन्द्रोंसे निवारण किया जा सकता है परन्तु दुःखसे सहन किया जाने वाला वज्रकी अग्निके समान जब परस्पर देवेन्द्रोंमें विवाद होता है तब उसका समाधान कौन कर सकता है ? अन्तमें कितने एक समय तक लड़ाई हुये बाद मानवक नामक स्तंभनके भीतर रही हुई अरिहंत की दाढ़ाओंके आधि, व्याधि, महादोष, महा वैर भावको, निवारण करने वाले शान्ति जलसे किसी एक बड़े महोत्तर देवता ने विवाद शान्त किया। फिर पारस्परिक बिरोध मिट जाने पर दोनों इन्द्रोंके प्रधान मंत्रियोंने पूर्व शाश्वती व्यवस्था जैसी थी वैसी बतलाई।
शाश्वनी रीति-जो दक्षिण दिशा में विमान हैं वे सब सौधर्म इन्द्रके हैं, और उत्तर दिशामें रहे हुये सब विमानों की सत्ता ईशानेन्द्र की है। जितने गोल विमान पूर्व और पश्चिम दिशा में है वे और तेरह इन्द्रक विमान सौधर्मेन्द्र की सत्तामें हैं। तथा पूर्व और पश्चिम दिशामें जो त्रिकोन तथा चौखूने विमान हैं उनमें आधे सौधर्मेन्द्र और आधे ईशानेन्द्र के हैं। सनत्कुमार और महेन्द्र में भी यही क्रम है। तथा इन्द्रक विमान जितने होते हैं वे सब गोल ही होते हैं। उन्होंने इस प्रकारकी व्यवस्था अपने स्वामियों से निवेदित की। इससे बे परस्पर गतमत्सर हो कर प्रत्युत स्थिर प्रीतिवान् बने। उस समय चन्द्रशेखर देवता ने हरिनगमेषी देवको कौतुक से यह पूछा क्या सारे जगत में कहीं भी कोई इन्द्रके समान ऐसा है कि जिसे लोभवुद्धि न हो या लोभ वृत्तिने जब इन्द्रों तक पर भी अपना प्रबल प्रभाव डाल दिया तब फिर अन्य सब मनुष्य उसके गृह दास समान हों इसमें आश्चर्य ही क्या है ? नैगमेषी बोला कि हे मित्र! तू सत्य कहता है, परन्तु पृथिवी पर किसी वस्तुकी सर्वथा नास्ति नहीं है इस समय भी वसुसार नामक शेठका पुत्र रत्नसार कुमार कि जो सचमुच ही लोभसे अक्षोभायमान मन वाला है, अंगीकार किये हुये परिग्रह परिमाण व्रतको पालन करने में इतनी
ढता धारण करता है कि यदि उसे इन्द्र भी चलायमान करना चाहे तथापि वह अपने अंगीकृत व्रतमें पर्वत के समान अकंप और निश्चल रहेगा । यद्यपि लोभ रूप महा नदीकी विस्तृत वाढमें अन्य सब तृणके समान बह जाते हैं परन्तु वह कृष्ण चित्रक के समान अडक रहता है। उसके इन बचनों को सुन कर चंद्रशेखर देव मान्य न कर सका इस लिये वही चन्द्रशेखर नामक देवता मैं तेरी परीक्षा करने के लिये यहां आया हूं। तेरे तोतेको पिंजड़े सहित चुराकर नवीन मैंका बना कर शून्य भार और भयंकर राक्षस का कर मैंने ही बनाया था। है बसुधारत्व ! जिसने तुझे उठा कर समुद्र में फेंका और अन्य भी बहुत से भय बतलाये मै वही चन्द्रशेखर देव