________________
श्राद्धविधि प्रकरणा
-३४०
इसलिये हे उत्तम पुरुष ! खल चेष्टित के समान इस मेरे अपराध को क्षमा कीजिये और देवदर्शन निष्फल न हो तदर्थ मुझे कुछ आज्ञा दीजिये । कुमार बोला श्रेष्ठ धर्मके प्रभाव से मेरी तमाम मनोकामनायें संपूर्ण हुई हैं इससे मैं आपके पास कुछ नहीं मांग सकता । परन्तु यदि तू देवताओं में धुरंधर है तो नन्दीश्वरादि ती यात्रा करना कि जिससे तेरा भी जन्म सफल हो । देवता ने यह बात मंजूर की और कुमारको पिंजरे सहित तोता देकर कनकपुरी में ला छोड़ा। वहांके राजा कौरह के सन्मुख रत्नसार का वह सकल महात्म्य प्रकाशित कर वह देवता अपने स्थान पर चला गया।
फिर बड़े आग्रह से राजा वगैरह की आज्ञा ले रत्नसार अपनी दोनों स्त्रियों सहित वहांसे अपने नगर की तरफ चला । कितनी एक दूर तक राजा आदि प्रधान पुरुष कुमार को पहुंचाने आये । यद्यपि वह एक व्यापारी का पुत्र है तथापि दीवान सामन्तों के परिवार से परिवरित उसे बहुत से विचक्षण पुरुषोंने राजकुमार ही समझा । रास्ते में कितने एक राजा महाराजाओं से सत्कार प्राप्त करता हुआ रत्नसार थोड़े ही दिनों में अपनी रत्न विशाला नगरी में आ पहुंचा। उस कुमारकी ऋद्धिका विस्तार और शक्ति देख कर समरसिंह राजा भी बहुत से व्यापारियों को साथ ले उसके सामने आया । राजाने बसुसारादिक बड़े व्यापारियों के साथ रत्नसार कुमार को बड़े आडम्बर पूर्वक नगर प्रवेश कराया । कुमारका उचिताचरण हुये बाद चतुर शुकराज ने उन सबको रत्नसार कुमार का आश्चर्य कारक सकल वृतान्त कह सुनाया । अद्भुत धैर्यपूर्ण कुमारका चरित्र सुन कर राजा प्रमुख आश्चर्य चकित हो उसको प्रशंसा करने लगे ।
क्षत्रि, मन्त्रि और श्रेष्ठि एवं
एक दिन उस नगरी के उद्यान में कोई एक विद्यानन्द नामक श्रेष्ठ गुरु पधारे। यह समाचार सुन हर्षित हो रत्नसार और राजा वगैरह उन्हें बन्दन करने के लिये आये । गुरु महाराज की समयोचित देशना हुये बाद राजाने विस्मित हो रत्नसार कुमार का पूर्व बृनान्त पूछा। चार ज्ञानके धारक गुरु महाराज ने फर्माया कि हे राजन् ! राजपुर नगर में लक्ष्मी के समान श्रीसार नामक राजा का पुत्र था। तीन जनोंके तीन पुत्र उसके मित्र थे। जिस तरह तीन पुरुषार्थों से जंगम उत्साह शोभता है वैसे ही वह तीन मित्रोंसे शोभता था। अपने तीन मित्रों को सर्व कलाओं में कुशल जान कर क्षत्रिय पुत्र अपनी बुद्धिमंदता की निन्दा करता और ज्ञानका विशेष बहुमान करता था। एक दिन किसी चोर ने राजाकी रानीके महल में चोरी की। मालूम होने से नगर रक्षक लोग चोर को पकड़ कर राजाके पास ले गये । क्रोधित हो राजाने उसे तत्काल ही मार डालने की आज्ञा दी। मृगके समान त्रासित नेत्र वाले उस चोर को मार डालने के लिये
देखा । मेरी माता का द्रव्य चुराने
स्थान पर ले जाया जा रहा था, दैव योग उसे दयालु श्रीसार कुमार ने वाला होने से इस चोरको स्वयं मैं अपने हाथसे मारूंगा यों कह कर उसे घातक पुरुषों के पाससे ले कुमार नगरसे बाहर चला गया । ज्ञानवान् और दयावान् कुमार ने अब फिर कभी चोरी न करना ऐसा समझा कर उसे गुप्तवृत्ति से छोड़ दिया। दुनिया में जिस मनुष्य के दो चार मित्र होते हैं उसके दो चार शत्रु भी अवश्य होते हैं। इससे किसीने चोर को छोड़ देनेकी बात राजा से जा कही । राजाकी आशा भंग नाविना यह शस्त्रका वध है, इसलिये क्रोधायमान हो कर राजाने श्रीसारको बुला कर बहुत ही धम