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श्राविधि प्रकरण · पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के चतुर्विधि संघका सप्रतिक्रमण धर्म है और मध्यके बाईस तीर्थंकरों के संघका धर्म है कि कारण पड़ने पर याने अतिचार लगा हो तो मध्यान्ह समय भी प्रतिक्रमण करें। परन्तु यदि अतिचार न लगे तो पूर्व करोड़ तक भी प्रतिक्रमण न करें।
तृतीय वैद्य औषधी दृष्टान्त वाहि मवणेई भावे, कुणइ अभावे तय'तु पढमंति ॥
बिइम मवणेइ, न कुणइ तइमं तु रसायणं होई ॥२॥ पहले वैद्यकी औषधी ऐसी है कि यदि रोग हो तो उसे दूर करती है, परन्तु रोग न होतो उसे उत्पन्न करती है। दूसरे वैद्यकी औषधीका स्वभाव रोगके सद्भावमें उसे दूर कर करनेका है, परन्तु रोग न होते गुणावगुण कुछ नहीं करती। तीसरे वैद्यकी औषधीका स्वभाव रसायन के समान है। यदि रोग हो तो उसे दूर करती है और यदि न हो तो सर्वागमें बल पुष्टी करती है। सुख वृद्धिका हेतु होती है और भावी रोगको अटकाती है।
इसी प्रकार प्रतिक्रमण भी यदि अतिचार न लगा हो तो चारित्रधर्म की पुष्टी करता है। यहां पर कोई यह कहता है कि श्रावकको आवश्यक चूर्णीमें बतलाये हुए सामायिक विधिके अनुसार ही प्रतिक्रमण करना। छह प्रकारके आवश्यक दोनों सन्ध्याओं में अवश्य करनीय होनेके कारण उसका घटमानपन हो सकता है। सामायिक करके इर्या वही पडिकम कर, काउस्सग्ग करके, लोग्गस्स कहकर, वन्दना दे कर श्रावकको प्रत्याख्यान करना चाहिये। इस प्रकार करनेसे पूर्वोक्त छह आवश्यक पूरे होते हैं।
'सामाइअ मुभय संझझमि' (सामयिक दो संध्याओंमें ) इस बचनसे सामायिक के कालका नियम हो चुका; ऐसा कहा जाय तो इसके उत्तरमें समझना चाहिये कि यह बात घटमान नहीं हो सकती, क्योंकि पाठसे छःप्रकारके आवश्यक के कालका नियम सिद्ध नहीं हो सकता। उसमें भी प्रथम तो प्रश्नकार के अभिप्राय मुजब चूर्णिकाकार ने भी सामायिक, इर्यावही प्रतिक्रमण, बन्दना ये तीन ही आवश्यक दिखलाये हैं। बाकी नहीं बतलाये। उसमें भी इर्षावही प्रतिक्रमण गमन विषयक हैं याने जाने आनेकी क्रियादिरूप है, परन्तु चतुर्थ आवश्यक रूप नहीं। क्योंकि-"गयणागमणविहारे, सुल्ते वा सुमिण दंसणे एवो। नावानईसंतारे, इरिआवहिया पडिक्कणं। जानेमें, आनेमें; बिहार करने में, सूत्रके आरम्भ में, रात्रिमें स्वप्न देखा हो उसकी आलोचना करनेमें, नौकासे उतरे बाद, नदी उतरे बाद, इतने स्थानोंमें इर्यावहि करना कहा है। इत्यादि सिद्धान्तों के बचनसे आवश्यक विषय नहीं है। अब यदि साधुके अनुसार श्रावकको भी इर्यावहि करना कहे तो काउसग्ग, चोवीसत्था भी बतलाया है। क्या वह साधुके अनुसार श्रावकको करना न चाहिये ? अर्थात् अवश्य ही श्रावकको भी प्रतिक्रमण करना चाहिये। "असई साहुचेइमाण पोसहसाल एवा सगिहेवा सामाइयवा आवस्सयंवा करेइ” साधु और चैत्य न हो तो पौषधशाला में या अपने घर सामायिक अथवा आवश्यक करे” इस प्रकार आवश्यक चूर्णिमें छह प्रकारका आवश्यक सामायिक से जुदा बतलाया है। सामायिक करनेमें कालका नियम नहीं।"