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श्राद्धविधि प्रकरण न साधूनां क्षेत्र न च भवति नैसर्गिकमिदं । गुणान् यो यो धत्ते स स भवति साधुभेजतु तान् ॥
जो पुरुष स्वभाव से ही पूज्यताको प्राप्त होते हैं वे दोषोंके त्यागने में ही अपना अतुल उत्साह रखते है, क्योंकि साधुता अंगीकार करनेमें कोई जुदा क्षेत्र नहीं। तथा कोई ऐसा अमुक स्वभाव भी नहीं है कि जिससे साधु हो सके। परन्तु जो गुणोंको धारण करता है वही साधु होता है । इस लिये ऐसे गुणोंको उपा. र्जन करनेमें उद्यम करना चाहिये। हंहो स्निग्धसखे विवेक बहुभिः प्राप्तोसि पुण्यैर्मया॥
गंतव्य कतिचिदिनानि भवता नास्पत्सकाशात्क्वचित् ॥ त्वत्संगेन करोपि जन्म मरणोच्छेदं गृहीतत्वरः॥
को जानासि पुनस्त्वया सहमम स्याद्वान वा संगमः ॥२॥ • हे स्नेहालु मित्र, विवेक ! मैं तुझे बड़े पुण्यसे पा सका हूं। इसलिये अब तुझे मेरे पाससे कितने एक दिन तक अन्य कहीं भी नहीं जाना चाहिये। क्योंकि तेरे समागम से मैं सत्वर ही जन्म मरणका उच्छेद कर डालता हूँ। तथा किसे मालूम है कि फिरसे तेरे साथ मेरा मिलाप होगा या नहीं ?
गुणेषु यत्नसाध्येषु। यत्ने चात्मनि संस्थिते ॥
__ अन्योपि गुणिनां धुयः। इति जीवन् सहेतकः ॥३॥ उद्यम करनेसे अनेक गुण प्राप्त किये जा सकते हैं और वैसा उद्यम करनेके लिये आत्मा तैयार है । तथा गुणोंको प्राप्त किये हुए इस जगतमें अन्य पुरुषोंके देखते हुए भी हे चेतन ! तू उन्हें उपार्जन करनेके लिए उद्यम क्यों नहीं करता? गौरवाय गुणा एव । न तु ज्ञानेय डम्बरः॥ वानेयं गृह्यते पुष्प मंगजस्त्यज्यते मलः॥४॥
गुण ही बड़ाईके लिए होते हैं परन्तु जातिका आडम्बर बड़ाईके लिए नहीं होता। क्योंकि बनमें उत्पन्न हुआ पुष्प ग्रहण किया जाता है परन्तु शरीरसे उत्पन्न हुआ मैल त्याग दिया जाता है। गुणरव महत्त्वं स्या।न्नांगेन वयसापि वा ॥ दलेषु केतकीनां हि । लघीयस्तु सुगंधिता ॥२॥
गुणोंसे ही बड़ाई होती है; शरीर या वयसे बड़ाई नहीं होती। जैसे कि केतकीके छोटे पत्ते भी सुगंधता के कारण बड़ाईको प्राप्त होते हैं।
कषायादिकी उत्पत्तिके निमित्त द्रव्य क्षेत्रादिक वस्तुके परित्याग से उस उस दोषका भी परित्याग होता है। कहा है किः
तं बध्धु मुत्तव्यं । जंपइ उप्पज्जए कसायग्गी ॥ तं बध्धु वेतव्यं । जद्धो वसपो कसायाणं ॥१॥ - वह वस्तु छोड़ देना कि जिससे कषाय रूप अग्नि उत्पन्न होती हो, वह वस्तु ग्रहण करना कि जिससे कषायका उपशमन होता हो।
__ सुना जाता है कि चंडरुद्राचार्य प्रकृतिसे क्रोधी थे, वे क्रोधकी उत्पत्तिको त्यागने के लिये शिष्यादिकसे जुदे ही रहते थे। भवकी स्थिति अति गहन है, चारों गतिमें भी प्रायः बड़ा दुख अनुभव किया जाता