Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 377
________________ ३६६ श्राद्धविधि प्रकरण गुरुकी विश्रामना-याने सेवा इस प्रकार करना कि जिससे उनकी आशातना न हो। उपलक्षण से गुरुको सुख संयम यात्रा वगैरह पूछना। परमार्थ से मुनियोंकी एवं धर्मिष्ट श्रावकादि की सेवा करनेका फल पूर्व भवमें पांचसों साधुओंकी सेवा करनेसे प्राप्त किया हुआ चक्रवर्ती से भी अधिक बाहूबली वगैरह के बल समान समझना। 'सवाइणदंतपदोषणाय' इस वचनसे यहां पर साधु मुनिराज को उत्सर्गमार्ग में अपनी सेवा न कराना, और अपवाद मार्गमें करावे तथापि दूसरे साधुके पास करावे। यदि वैसे किसी साधुका सद्भाव न हो तो उस प्रकारके विवेकी श्रावकसे करावे। यद्यपि महर्षि लोग मुख्यवृत्ति से अपनी सेवा नहीं कराते तथापि परिणाम की विशुद्धिसे साधुको खमासमण देते हुये निर्जराका लाभ होता है, इससे विवेकी श्रावकको उनकी सेवा करनी चाहिये । . फिर अपनी बुद्धिके अनुसार पूर्व सीखे हुये दिन कृत्यादिक श्रावकविधि, उपदेशमाला, कर्मग्रंथादिक ग्रंथोंका परावर्तन स्वाध्याय करे। तदुप शीलांगादि रथ, नवकार के वलय गिनने आदि चित्तमें एकाग्रता की बृद्धिके लिये उनका परावर्तन करे, शीलांग रथका विचार नीचेकी गाथासे जान लेना चाहिये । करणे जोए संन्ना। इंदिन भूपाइ समण धम्मोअ॥ सीलंग सहस्साण । अठारगस्स निप्पत्ति ॥ १॥ __ करन याने न करना, न कराना, न अनुमोदन करना, योग याने मनसे वचनसे कायसे, संज्ञा याने आहार भय, मैथुन, परिग्रह, इन चार संज्ञाओंसे, इंद्रिय--याने पांचों इंद्रियोंसे, भूत याने पृथ्वी, अप, तेज, वावु, वनस्पति, दो इंद्रिय, तेइ द्रि, चौरेंद्रि, और अजीवसे, श्रमणधर्म याने, क्षमा, आर्जवता, मार्दवता, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचनता से शीलांगके अठारह हजार भांगे होते हैं। और उसे रथ कहते हैं। उसका पाठ इस प्रकार है:जे नो कर ति पणसा। निजिअ आहार सन्नि सोई दि॥ .. पुढबीकायार भे। खंनिजुमा ते मुणी वंदे ॥ १॥ आहार, संज्ञा, और श्रोतेन्द्रिय जीतने वाला मुनिराज मनसे भी पृथ्वीकाय का आरंभ नहीं करता, ऐसे क्षमा गुण युक्त मुनिको चन्दन करना । इत्यादि अठारह हजार गाथा रचनेका स्पष्ट विचार पत्रकसे समझ लेना न हणेइ सयं साहु । यणसा आहार संन्न संवुडओ॥ सोइदिन संवरणा । पुढवि जिरा खंति संपुन्नो॥१॥ आहार संज्ञा संवरित और क्षमा संयुक्त श्रोत्रेन्द्रिय का संवर करने वाला साधु स्वयं मनसे भी पृथ्वी कायके जीवोंको नहीं हणता, इत्यादि। इसी प्रकार सामावारी रथि, क्षामण रथि, नियमरथि, आलोचना रथि, तपोरथि, संसाररथि, धर्मरथि, संयमरथि, वगैरह के पाठ भी जान लेना। यहां पर ग्रंयबृद्धिके भयसे नहीं लिखा गया। नवकार का बलक गिननेमें पांच पदको आश्रय करके एक पूर्वानुपूर्वी (पहले पदसे पांचवे पद तक जो अनुक्रमसे गिना जाता है ) एक पश्चानुपूर्वी (पांचवें पदसे पहिले पद तक पीछे गिनना ) नव पदको

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