Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

View full book text
Previous | Next

Page 367
________________ ३५६ श्राद्धविधि प्रकरण भोजनानंतरं वाम। कटिस्था वटिकाद्वयं ॥ - शयीत निद्रया हीनं। यद्वा पद शतं व्रजेत् ॥२५॥ भोजन किये बाद वायां अंग दबा कर दो घड़ी निद्रा बिना लेट रहना चाहिये, या सौ कदम घूमना चाहिये, परन्तु तुरन्त ही बैठ रहना योग्य नहीं। आगमोक्त विधि नीचे मुजब है। निरवज्जाहारेणं। निज्जीवेणं परित्त मिस्सेणं ॥ अत्ताणु संधणपरा। सुसावगा ए रिसा हुँति ॥१॥ दूषण रहित आहार द्वारा, निर्जीव आहार द्वारा, प्रत्येक मिश्र आहार द्वारा, ( अनन्तकाय नहीं) ही अपना निर्वाह करनेमें तत्पर सुश्रावक होता है। असर सर अचवचब, अदुअमविल विश्र अपरिसाडि। - प्रणवयकायगुत्तो भुजई साहुव्व उवउचो ॥२॥ श्रावकको साधुके समान, मौन रह कर चपचपाहट करनेसे रहित, शीघ्रता रहित, अति मन्दता रहित, जुठा न छोड़ कर, मन, वचन, कायको गोपते हुए उपयोगवान् हो कर भोजन करना चाहिये। ___ कडपयरच्छेएणं भुत्तव्यं अहव सीह खइएणं । एगेण प्रणेगे हिव, वज्जित्ता धूमई गालं ॥३॥ जिस प्रकार वांसके टुकड़े करनेके समय उसे एकदम चीरते हैं, उस तरह या सिंह भोजनके समान (सिंह एकदम झपट्टा मार कर खा जाता है वैसे) तथा बहुतसे मनुष्यों के बीच एवं धूम, इंगालादिक दोषोंको वर्ज कर एकलेको एक वार भोजन करना चाहिये। जहअभ्भंगललेवा, सगड रुखवणाण जुत्तियो हुति ॥ इअसंजम भ रहवहणठयाइ साहुप्राहारो ॥४॥ जिस प्रकार शरीरका बल बढ़ानेके लिये स्नान करते समय अभ्यंगन किया जाता है और गाडीको चलाने के लिये जैसे उसकी धुराओंमें तेल लगाया जाता है वैसे ही संयमका भार बहन करनेके लिए साधु लोक आहार करते हैं। __तित्तगंव कडुअंव, कसायं अंबिलंवमहुर लवणं वा ॥ एम लद्द मन्न ठ पउत्त, महुधयं व अँजिज्ज संजए॥५॥ साधुको तिक्त, कटु, कषायला, खट्टा, मीठा, खारा इस प्रकारका आहार मिले तथापि वह अन्य कुछ विचार न करके उसे ही मिष्ट और स्वादिष्ट मानकर खा लेते हैं। . . अहब न जिमिज्जरोगे, मोहुदए सयणमाइ उवसग्गे॥ .. पाणी दयात वहेउ, अंते तणुमो अणथ्थं च ॥६॥ 'जब रोग हुआ हो, जब मोहका उदय हुआ हो, जब स्वजनादिक को उपसर्गःउत्पन्न हुआ हो, जीवदया पालनेके समय, जप तप करना हो अन्त समय शरीर छोड़नेके लिये जब अनशन करना हो तब भोजन करना।

Loading...

Page Navigation
1 ... 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460