Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

View full book text
Previous | Next

Page 368
________________ श्राद्धविधि प्रकरण ऊपर बतलाई हुई समस्त सिद्धान्तोक्त रीति साधुके आश्रित है। श्रावकको यथायोग्य समझ लेना। दूसरे शास्त्र भी कहते हैं कि:देवसाधुपुरस्वामी, स्वजनव्यसने सति ॥ ग्रहणे च न भोक्तव्य शक्तौ सत्यां विवेकिना॥७॥ जब देव, गुरु, राजा, स्वजन, इत्यादि पर कुछ का आ पड़ा हो एवं ग्रहण पड़ते समय विवेकवान् मनुष्यको भोजन न करना चाहिये। "अजीर्ण प्रभवा रोगाः" अजीर्ण होनेसे रोग उत्पन्न होते हैं। अजीर्णके विषयमें कहा है कि:बलावरोधिनिर्दिष्ट, ज्वरादौ लंपनं हितं ॥ ऋतेऽनिलश्रमक्रोध-शोककामक्षतज्वरान् ॥८॥ वायु, श्रम, कोध, शोक, काम या घाव तथा विस्फोटक वगैरह का यदि बुखार न हो तो उसके बलको रोकने वाला होनेसे बुखारकी आदिमें लंघन ही करना हितकारी है। ऐसा वैद्यक शास्त्रका कथन होनेसे ज्वरके समय, नेत्ररोगादिके समय, तथा देव गुरुकी वन्दना करनेका योग न बने उस समय एवं तीर्थ गुरुको नमस्कार करनेके समय कोई विशेष धर्म करणी अंगीकार करनेके आदिमें या किसी प्रौढ़ पुण्य करणीके प्रारम्भमें अष्टमी चतुर्दशी वगैरह विशेष पर्वतिथियों में भोजनका परित्याग करना चाहिये। उपवास आदि तप करनेसे इस लोक और परलोक में सचमुच ही विशेष गुणकी और लाभकी प्राप्ति होती है। अथिर पिथिर कंपि, उज्जुन दुल्लहंपि तहसुलहं॥ दुसज्जंपि सुसज्ज, तवेण संपज्जए कजं ॥६॥ अस्थिर भी स्थिर, वक्र भी सरल, दुर्लभ भी सुलभ, दुःसाध्य भी सुसाध्य, मात्र तपसे ही हो सकते हैं । वासुदेव, चक्रवर्ती वगैरह तथा देवता वगैरह जो सेवा करने रूप इस लोकके कार्य हैं वे सब अष्टमादिक तपसे ही सिद्ध होते हैं। परन्तु उस बिना नहीं होते। (यह भोजनादिक विधि बतलाई है।) __ "भोजनकर उठे बाद करनेके कार्य" भोजन किये बाद नवकार गिन कर उठके चैत्यवन्दन करे, फिर यथायोग्य देव गुरुको वन्दन करे। यह सब कुछ "सुपत्तदाणाइजुत्ति इसमें बतलाये हुये आदि शब्दसे सूचन किया हुआ समझना” अब पिछले पद की व्याख्या बतलाते हैं कि भोजन किये बाद प्रत्याख्यान करके दिवसचरिम या ग्राथि सहितादि प्रत्याख्यान • गुर्वादिक को दो वन्दना देने पूर्वक अथवा वैसा योग न हो तो वैसे ही करके गीतार्थोंके, यतियोंके, गीतार्थ श्रावकके, या ब्रह्मचारी श्रावकके पास वांचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा, अनुप्रेक्षा लक्षणवाली यथायोग्य स्वाध्याय करना। उसमें १ निर्जराके लिये यथायोग्य जो सूत्र अर्थका पढना, पढाना, है उसे वांचना कहते हैं। २ वांचना लेते समय उसमें जो कुछ शंका रही हो उसे गुरुको पूछ कर निःसंशय होना इसे पृच्छना कहते हैं। ३ पहले पढे हुये सूत्र तथा उनका अर्थ पीछे विस्मृत न होने देनेके कारण जो उनका बारंबार अभ्यास करना सो परावर्तना कहलाता है। ४ जम्बूस्वामी वगैरह महान् पुरुषोंके चरित्रोंको स्मरण करना,

Loading...

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460