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श्राद्धविधि प्रकरण पद स्थापना करने वगैरहके धर्मकृत्य किये थे इसलिये भोजनके समय गृहस्थको चाहिये कि वह विशेषतः दयादान करे । निश्रय करके गृहस्थ को एवं निर्धन श्रावकको भी उस प्रकारकी औचित्यता रखकर अपकाना कि जिससे उस समय दोम हीन याचक आ जाय तो उन्हें उसमेंसे कुछ दिया जासके। ऐसा करनेसे कुछ अधिक व्यय नहीं होता, क्योंकि उन्हें थोड़ा देकर भी संतोषित किया जा सकता है। इसलिये कहा है किप्रासाद गलितसिक्वेन । किं न्यूनं करिणो भवेत् ॥ जीवत्येव पुनस्तेन । कीटिकानां कुटुम्बकं ॥ .
प्रासमेंसे गिरे हुये दाणेसे क्या हाथीको कुछ कम हो जाता है ? परन्तु उससे चींटीका सारा कुटुम्ब जीवित रह सकता है।
इस युक्तिसे रंधे हुये निर्वद्य आहारसे सुपात्र दान भी शुद्ध होता है। माता पिता बहिन भाई वगैरह की, पुत्र, बहू आदिकी रोगी वांधी हुई गाय, बैल, घोड़ा, वगैरह की भोजनादिक से उधित सार संभाल करके नवकार गिन कर और प्रत्याख्यान, नियम वगैरह स्मरण कर सात्म्य याने अवगुण न करता हो ऐसे पदाध का भोजन करे। इसलिये कहा है कि:पितुर्मातु: शिशूनां च । गर्भिणी वृद्धरोगिणां ॥ प्रथमं भोज 'दत्वा । स्वयं भोक्तव्यमनमः ॥१॥
पिता, माता, बालक, गर्भिणी, वृद्ध और रोगी इतने जनोंको प्रथम भोजन कराकर, फिर भाप भोजन करना चाहिये। चतुष्पदानां सक्ष।धृतानां च तथा नृला॥
चिंता विधाय धर्मशः । स्वयं भुजीत नान्यथा ॥२॥ धर्म जाननेवाले मनुष्य को अपने घरके तमाम पशुओं तथा बाहरसे आये हुये अतिथि महमान कोरह की सार संभाल लेकर फिर भोजन करना चाहिये।
“भोजन करनेका विधि पानाहारादयो यस्माविरुद्धाः प्रकृतेरपि ॥ सुखित्वा यावकल्पन्ते । तत्सात्म्बमिति गीयते ॥
प्रकृतिको न रुचता हो तयापि जो शारीरिक सुखके लिये आहार वगैरह किया जाता है उसे सात्म्य कहते है।
जो, बस्तु जन्मसे ही खानपान में आती हो, फिर वह चाहे विष ही क्यों न हो तथापि वह अमृत समान होती है । प्रकृतिको प्रतिकूल बस्तु अमृत समान हो तथापि वह बिष समान है । इसमें इतना विशेष समझना चाहिये कि जन्मसे पथ्यतया खाया हुवा विष भी अमृत तुल्य होता है। असाल्य करके (कुषण्य करनेसे) अमृत भी विष तुल्य है, इसीलिये जो शरीरको अनुकूल हो परन्तु पथ्य हो वैसा भोजन प्रमाणले सेवा करना। मुझे सब ही सात्म्य है ऐसा समझ कर विष कदापि न खाना। विष संकधी शास्त्र जानता हो विषापहरन करना भी जाना हो तथापि विष खानेसे ग्रानी मृत्युको ही प्रास होता है। तथा यदि ऐसा विचार करे कि: