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श्राद्धविधि प्रकरण
२७५ निर्मल, कपटरहित, वृत्तिसे और न्याययुक्त रीतिमुजब प्रवृत्तिसे कमाया हुवा धन देनेवाला दान देने के योग्य गिना जाता है। और अपने ज्ञानादि गुणयुक्त हो वही दान लेने योग्य पात्र गिना जाता है। उपरोक्त गुणयुक्त दायक और पात्र इन दोनोंका संयोग श्रेष्ठ जमीनके खेतमें बोये हुए बीजके समान सचमुच ही दुर्लभ है।
__फिर राजाने सर्वोपरि पात्र दान जानकर आठ दिन तक रात्रिमें किसीको मालूम न हो ऐसी युक्तिसे व्यापारी की दूकान पर आकर व्यापारी की लायकीके अनुसार आठ रुपये पैदा किये। पर्वके दिन सब ब्राह्मणों को बुला कर पात्र विप्रको बुलानेके लिए दीवानको भेजा। उसने जाकर पात्र विप्रको आमंत्रण किया, इससे वह बोला
यो राज्ञः प्रतिगृहाति। ब्राह्मणो लोभमोहितः।
· तपिश्रादिषु घोरेषु । नरकेषु स पत्यते ॥ जो ब्राह्मण लोभमें मोहित होकर राजाके हाथसे राज्यद्रव्य का दान लेता है वह तमिश्रादिक महा अन्धकारवाली घोर नरकमें पड़ कर महापाप को सहन करता है, इस लिये राजाका दान नहीं लिया जाय ।
राज्ञः प्रतिग्रहो धीरो, मधुमिश्रविशोपमः।
पुत्रास वर भुक्त। नतु राज्ञः प्रतीग्रही। राजद्रव्यका दान लेना अयोग्य है क्योंकि यह मधुसे लेप किये हुए विषके समान है, अपने पुत्रका मांस खाना अच्छा, परन्तु सजाका दान पुत्र मांसले भी अयोग्य होनेसे वह नहीं लिया जाता।
दश सूनासमा चक्री, दशचक्री समोध्वजः।
दशध्वजसमा वेश्या, दश बेश्यासपो नृपः॥ दश कसाइओं के समान पक कुंभकार का पाप है, दस कुंभकारों के पाप समान स्मशानिये ब्राह्मण का पाप है, दस श्मशानी ब्राह्मणोंके पाप समान एक वेश्याका पाप है, और दश वेश्याओं के पाप समान एक राजाका पाप है।
यह बात पुराण तथा स्मृति वगैरहमें कथन की हुई होनेसे मुझे तो राजद्रव्य अग्राह्य है इस लिये मैं राजाका दान ने लूगा। प्रधान बोला-"स्वामिन् ! राजा आपको न्यायोर्जित ही वित्त देगा।" विष बोला नहीं नहीं ऐसा हो नहीं सकता! राजाके पास न्यायोपार्जित धन कहांसे आया।” प्रधान बोला-- "स्वामिन् ! राजाको मैंने प्रथमसे ही सूचना की थी, इससे उन्होंने स्वयं भुजासे न्यायपूर्वक उपार्जन किया है इसलिये वह लेनेमें आपको कुछ भी दोष लगनेका सम्भव नहीं। सन्मार्गसे उपार्जन किया द्रव्य लेने में क्या दोष है ? ऐसी युक्तियों से समझा कर दीवान सुपात्र, विश्को दरवारमें लाया। राजाने अति प्रसन्न होकर उसे आसन समर्पण किया, बहुमान और विनयसे उसके पाद प्रक्षालन किये। फिर हाथ जोड़ कर नाव से राजाने स्वभुजासे उपार्जन किये उसके हाथों आठ रुपये समर्पण शिये और नमस्कार करके उसे सम्मान पूर्णक विसर्जन किया, इससे बहुतसे विक्र अपने मन में विविध प्रकार के विचार और खेद करने लगे। परन्तु