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श्राद्धविधि प्रकरण
air एक दिव्य सुन्दरी आई । मन्दिरमें आकर वह पहले अपने मयूर सहित श्री ऋषभदेव स्वामीको नम। स्कार स्तवना करके मानो स्वर्गसे रम्भा नामक देवांगना ही आकर नाटक करती हो इस प्रकार प्रभुके सन्मुख नाटक करने लगी। उसमें भी प्रशंसनीय हाथोंके हाव और अनेक प्रकारके अंग विक्षेप वगैरहसे उत्पन्न होते भाव दिखलाने से मानो नाट्यकला में निपुण नटिका ही न हो इस तरह विविध प्रकारकी चित्रकारी रचना से नाचने लगी । उसका ऐसा सुन्दर दिव्य नाटक देखकर रत्नसार और तोतेका चित्त सब बातोंको 'भूलकर नाटक में तन्मय बन गया, इतना ही नहीं उस रूपसार कुमारको देखकर, मृग समान नेत्र वाली वह स्त्री भाँ बहुत देर तक अति उल्हास और विलाससे हंसती हुई आश्चर्य निमग्न होगई । तब विकस्वर मुखसे रत्नसार ने पूछा कि हे कृषोदरी ! यदि तुम नाराज न हो तो मैं कुछ पूछना चाहता हूं। उसने प्रसन्नता पूर्वक प्रश्न करने की अनुमति दी । इससे कुमारने पूर्वकी सब बातें विशिष्ट वचनसे पूछीं । तब उसने भी अपना आद्योपान्त वृतान्त कहना शुरू किया।
कनक लक्ष्मीसे विराजित कनकपुरी नामा नगरीमें अपने कुलमें ध्वजा समान कनककेतु नामक राजा राज्य करता था । उस राजाके अन्तेपुरमें सारभूत प्रशंसनीय गुणरूप आभूषण को धारण करने बाली इन्द्रकी अग्र महिषीके समान सौन्दर्यवती कुसुमसुन्दरी नामक रानी थी। उस रानीने एक दिन देवताके समान सुखरूप निद्रामें सोते हुये भी स्त्री रत्नके प्रमोदसे उत्कृष्ट आनन्द दायक एक स्वप्न देखा कि पार्वती के गोदसे उठकर विलास और प्रीतिके देने वाला रति और प्रीतिका जोड़ा अपने स्नेहके उमंगसे मेरी गोदमें आ बैठा है। ऐसा स्वप्न देख तत्काल ही जागृत हो खिले हुये कमलके समान लोचन वाली रानी वचनसे न कहा जाय इस प्रकार के हर्षसे पूर्ण हुई, फिर उसने जैसा स्वप्न देखा था वैसा ही राजाके पास जा कहा, इससे स्वप्न विचारको जानने वाले राजाने कहा कि हे मृगशावलोचना ! मालूम होता है कि उत्कृष्टता बतलाने वाला और सर्व प्रकारसे उत्तम तुझे एक कन्या युग्म उत्पन्न होगा । होगा यह वचन सुनकर वह रानी अति आनन्दित हुई । उस दिन से रानीके गर्भ महिमासे पहले शरीरकी पीलासके मिषसे मानसिक निर्मलता दीखने लगी । जब जलमें मलीनता होती है तब बादलों में भी मलिनता देख पड़ती है और जल रहित बादल स्वच्छ देख पडते हैं वैसे ही यह न्याय भी सुघटित ही है कि जिसके गर्भ मलीनता नहीं है उससे जलरहित वादलके समान रानीका वाह्य शरीर भी दिनों दिन स्वच्छ दीखने लगा : जिस प्रकार सत्य नीतिले द्वैत - कीर्ति और अद्वैत एकली लक्ष्मी प्राप्त की जाती है वैसे ही उस रानीने समय पर सुख पूर्वक पुत्री पुग्मको जन्म दिया। पहलीका नाम अशोक मंजरी दूसरीका नाम लिलक मंजरी
रचना में विधाता की
कन्या युग्म उत्पन्न
रक्खा गया ।
अव वे पांच धायमाताओं द्वारा लालित पालित हुई नन्दनबन में कल्पलता के समान दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धिको प्राप्त होने लगीं। वे दोनों जनीं क्रमसे स्त्रीकी चोंसठ कलाओंमें निपुण हो योवनावस्था के निकट हुई। जैसे बसंत ऋतु द्वारा बन शोभा वृद्धि पाती है बैसे ही यौवनावस्था प्रगट होनेसे उनमें कला चातुर्यता वगैरह गुणोंका भी अधिक विकास होने लगा। अब वे अपने रूप लावण्यसे अपने दर्शक युवकोंके