Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 348
________________ श्राद्धविधि प्रकरण हरन कर ले गया। वह उसे अपने नगरमें ले जाकर मणि रत्नोंसे उद्योतायमान अपने मन्दिरमें कोपायमान हो जैसे कोई चतुर बुद्धिसे अपनी चतुरा स्त्रीको शिक्षा देता हो उस प्रकार कहने लगा कि हे मुग्धे ! तू वहां आये हुये किसी कुमारके साथ तो प्रेम पूर्वक बात चीत करती थी और तेरे वशीभूत हुये मुझे तो तू कुछ उत्तर तक नहीं देती ? अब भी तू अपने कदाग्रह को छोड़कर मुझे अंगीकार कर! यदि ऐसा न करेगी तो सचमुच ही यमराज के समान मैं तुझ पर कोपायमान हुआ हूं। तब धैर्य धारण कर तापस कुमार ने कहा कि, हे राजेन्द्र ! छलवान् पुरुष छल द्वारा और बलवान पुरुष बल द्वारा राज्य ऋद्धि वगैरह प्राप्त कर सकता है। परन्तु छलसे या बलसे कदापि प्रेम पात्र नहीं हो सकता। जहाँपर दोनों जनोंके चित्तकी यथार्थ सरसता हो वहां पर ही प्रेमांकूर उत्पन्न होता है। जैसे जबतक उसमें स्नेह (घी) न डाला हो तबतक अकेले आटेका लड्डू, नहीं बन सकता। वैसे ही स्नेह बिना सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि ऐसा न हो तो स्नेह रहित अकेले काष्ठ पाषाण परस्पर क्यों नहीं चिपट जाते ? जो स्नेह बिना सम्बन्ध होता हो तो उन दोनोंका सम्बन्ध भी होना चाहिये तब फिर ऐसा कौन मूर्ख है कि जो निस्नेही में स्नेहकी चाहना रख्खे ? वैसे मूखोंको धिक्कार है कि जो स्नेह स्थान बिना भी उसमें व्यर्थ आग्रह करते हैं। ये बचन सुनकर विद्याधर अत्यन्त कोपायमान हुआ और निर्दय हो तत्काल म्यानसे तलवार निकाल बोला अरे रे! दुष्ट क्या तू मेरी भी निन्दा करता है ? मैं तुझे जानसे मार डालूगा । धैर्यका अवलम्बन ले तापसकुमार बोला कि अरे दुष्ट पापिष्ट ? अनिश्चित के साथ मिलाप करना इससे मरना श्रेयस्कर है। यदि तू मुझे न छोड़ सकता हो तो विलम्ब किये बिना ही मुझे मार डाल, मैं मरने को तैयार हूं । तापसकुमार के पुण्योदय से विद्याधर ने विचार किया कि अहा ! क्रोधावेश में मैं यह क्या कर रहा हूं? मेरा जीवित इस कुमारीके आधीन है, तब फिर क्रोध आकर मैं इसे किस तरह मार सकू? सचमुच ही मीठे बचनोंसे और प्रेमालाप से ही प्रेमकी उत्पत्ति हो सकती है। इस विचारसे तत्काल ही जैसे कंजूस मनुष्य समय आने पर अपना धन छिपा देता है वैसे ही उसने अपनी तलवार म्यानमें डाल दी फिर उस विद्याधर ने अपनी काम रूपिणी विद्याके बलसे तापसकुमार को तुरन्त ही मनुष्य भाषा भाषिणी एक हंसी बना दी। फिर उसे मणि रत्नोंके पिजड़ेमें रख कर पूर्ववत् आदर पूर्वक प्रसन्न करने के लिये चाटु वचनों द्वारा प्रतिदिन समझाने लगा। चतुराई पूर्ण मीठे बचनों से उसे समझाते हुये एक दिन विद्याधर की कमला नामक रानीने देख लिया। इससे उसके मनमें कुछ शंका पैदा हुई । स्त्रियोंका यह स्वभाव ही है कि वे सौतका सम्भव होता नहीं देख सकतीं और इससे उनमें मत्सर एवं ईर्षा आये बिना नहीं रहती। एक दिन उस विद्याधरीने सखीके समान अपनी विद्याको याद कर अपने शल्यको निकाल नेके समान सौत भावके भयसे उस हंसीको पिंजरेसे निकाल दिया। अब वह पुण्योदय से नरकमें से निकले के समान उस विद्याधर के घरमें से निकल शबर सेना नामक अटवी को उद्देश कर भ्रमण करने लगी। कदाचित् वह विद्याधर मेरे पीछे आकर मुझे फिरसे न पकड़ ले इस भयसे आकुल ब्याकुल मनवाली अति वेगसे उड़तो हुई वह थक गई। पुण्योदय से आकर्षित हो मानो विश्राम लेनेके लिये ही वह हंसी यहां आ पहुंची और आपको देख कर वह आपकी गोद रूप कमलमें आ छिपी। हे कुमारेन्द्र! वस मैं ही वह हंसिनी हूँ और वही यह विद्याधर था कि जिसे आपने संग्राम द्वारा पराजित किया।

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