Book Title: Shraddh Vidhi Prakaran
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 343
________________ श्राद्धविधि प्रकरण ३३२ तब तुझे वहां ही तेरी बहिनका वृत्तान्त मिलेगा और मिलाप भी तुझे उसका वहां ही होगा। तथा इतना तू और भी याद रखना कि उसी मन्दिर में तेरा अन्य भी सब कुछ श्रेय होगा। क्योंकि देवाधि देवकी सेवामें नहीं सिद्ध होता ? तु यह समझती होगी कि ऐसे भयंकर वनमें और इतनी दूर रोज किस प्रकार पूजा करने जाया जाय ? और पूजा करके प्रतिदिन पीछे किस तरह आ सका जाय ! इस बातका भी मैं तुझे उपाय बतलाती हूं सो भी तू सावधान होकर सुन ले । सत्यकी विद्याधर के समान अति शक्तिवान् और सर्व कार्यों में तत्पर चंद्रचूड नामक मेरा एक सेवक है, वह मेरी आशाले मोरका रूप धारण कर तुझे तेरे निर्धारित स्थान पर जैसे ब्रह्माकी आज्ञा से सरस्वतीको हंस ले जाया करता है वैसे ही लाया और ले जाया करेगा । इस बातकी तू जरा भी चिन्ता न करना । देवी अभी अपना वाक्य पूरा न कर सकी थी इतनेमें ही आकाशमें से अकस्मात् एक मनोहर दिव्य शक्ति वाला और अति तीव्र गति वाला सुन्दर मयूर तिलकमंजरीके सन्मुख आ खड़ा हुआ। उसपर चढकर देवांगना के समान जिनेश्वर देवकी यात्रा करनेके लिये उस दिनसे मैं यहां पर क्षणभर में आया जाया करती हूँ । यह वही भयंकर बन है; शीतलता करने वाला वही यह मन्दिर है, वही विवेकवान् यह मयूर है और वही मैं तिलकमंजरी कन्या हूँ | कुमार ! मैंने यह अपना वृत्तान्त कहा। हे सौभाग्यकुमार ! अब मैं आपसे पूछती हूं कि मुझे यहां पर आते जाते आज बराबर एक महीना पूर्ण हुआ है, परन्तु जिस प्रकार मरु देशमें गंगा नदीका नाम तक भी नहीं सुना जाता वैसे ही मैंने यहां पर आज तक अपनी बहिनका नाम तक नहीं सुना । इसलिये हे भद्रकुमार ! आपने जगतमें परिभ्रमण करते हुये यदि कहीं पर भी मेरे समान स्वरूप कान्ति वाली कन्या देखी हो तो कृपा कर मुझे बतलावें । तब तिलकसुन्दरी के वश हुआ रत्नसार कुमार स्पष्टतया बोलने लगा कि हे हरिणाक्षी ! हे तीन लोककी स्त्रियोंमें मणि समान कन्यके! तेरे जैसी तो क्या ? परन्तु तेरे शतांश भी रूप राशीको धारण करने वाली कन्या मैंने जगतमें परिभ्रमण करते आज तक नहीं देखी और सम्भव है देख भी न सांगा । परन्तु शबरसेना नामक अटवीमें एक दिव्य रूपको धारण करने वाला, हिण्डोले में झूलते हुये अत्यन्त सुन्दर युवावस्था की शोभासे मनोहर, बचनकी मधुरतासे, अवस्थासे और स्वरूप से बिलकुल तेरे ही जैसा मैंने पहले एक तापस कुमार अवश्य देखा है । उसका स्वाभाविक प्रेम, उसकी कीहुई भक्ति और अब उसका विरह मुझे ज्यों ज्यों याद आता है त्यों त्यों वह अभी तक भी मेरे हृदयको असह्य वेदना पहुंचाता है । तुझे देखकर मैं अनुमान करता हूं कि वह तापस कुमार तू स्वयं ही है और या जिसका तूने वर्णन सुनाया वही तेरी बहिन हो । फिर वह तोता गंभीर वाणीसे बोला कि कुमारेन्द्र ! जो मैंने आपसे प्रथम वृत्तान्त कहा था वही यह वृत्तान्त है, इसमें कुछ भी शंका नहीं। सचमुच ही हमने जो वह तापस कुमार देखा था वह इस तिलकमंजरी की बहिन ही थी, और मैं अपने ज्ञान बलसे यही अनुमान करता हूं कि आज एक मास उस घटना को पूर्ण हुआ है इसलिये वह हमें यहां ही किसी प्रकारसे आज मिलनी चाहिये। जगत भरमें सारभूत तिलकर्म जरी

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