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श्राद्धविधि प्रकरण ओंसे भी अजय्य है क्या यह तुन्हें मालूम नहीं ? अपने अभिमान को चारों तरफ पसारते हुए तुम सपके समान दौड़े चले आ रहे हो! परन्तु तुम्हें अभी तक यह मालूम नहीं कि तुम्हारा अभिमान दूर करने वाला गरुड़के समान पराक्रमी रत्नसार कुमार सामने ही खड़ा है ? अरे ! तुम यह नहीं जानते कि यह कुमार यदि तुम पर यमराज के समान कोपायमान हो गया तो युद्ध करनेके लिये खड़ा रहना तो दूर रहा परन्तु जान वचा कर यहाँसे भागना भी तुम्हें मुश्किल हो जायगा? .. ... इस प्रकार वीर पुरुषके समान उस शुकराज की पुकार सुन कर खेद, विस्मय और भय प्राप्त कर विद्याधर मनमें विचार करने लगे कि, यह तोतेके रूपमें अवश्य कोई देवता या दानव है। यदि ऐसा न हो तो हम विद्याधरों के सामने इस प्रकारकी फक्का अन्य कौन करनेके लिये समर्थ है ? हमने आज तक कितनी एक दफा विद्याधरों के सिंहनाद भी सुने हैं परन्त इस तरह तिरस्कार पूर्वक फक्का आज तक कभी न थी। तथा जिसका तोता भी इस तरहका वीर है कि जो विद्याधरों को भी भयानक मालूम होता है, तब फिर इसके पीछे रहा हुवा स्वामी कुमार न जाने कैसा पराक्रमी होगा ? जिसका बल पराक्रम मालूम नहीं उस तरहके अनजान स्वरूपमें युद्ध करनेके लिए कौन आगे बढ़े ? जब तक समुद्रका किनारा मालूम न हो तब तक कौन ऐसा मूर्ख है कि-जो तारकपन के अभिमान को धारण करके उसमें तैरनेके लिए पड़े? इस विचारसे वे निष्पराक्रम हो एकले तोतेकी फक्का मात्रसे सशंक त्राशको प्राप्त कर निर्माल्य हो कर एक दूसरेके साथकी राह देखे बिना ही वापिस लौट गये।
जिस प्रकार एक बालक भयभीत हो अपने पिताके पास जा कर सब कुछ सत्य हकीकत कह देता है वैसे ही उन विद्याधर सैनिकोंने भी वहांके राजाके पास जाकर जैसी बनी थी वैसे ही सर्व घटना कह सुनाई। क्योंकि अपने स्वामीके पास कुछ भी न छिपाना चाहिये । उनके मुखसे पूर्वोक्त वृतान्त सुन कर क्रोधायमान होनेके कारण लाल नेत्र करके वह विद्याधर राजा टेढ़ी दृष्टि कर बिजली-चमत्कार के समान भृकुटीको फिराता हुओ मेघके समान गर्जना करने लगा। क्रोधसे लाल सुर्ख हो कर वह सिंह समान तेजस्वी राजा सैनिकोंको कहने लगा वीरताके नामको धारण करने वाले तुम्हें धिक्कार है। तुम निरर्थक ही भयभीत हो कर पीछे लौट आये, कौन तोता, और कौन कुमार! या कौन देव और कौन दानव! हमारे सामने खड़े रहनेकी किसकी ताक़त है ? अरे पामरो! तुम अब मेरा पराक्रम देखो यों बोलते हुए उसने अकस्मात् अपनी विद्याके बलसे दस मुख और बीस भुजा धारण की । लीला मात्रसे शत्रुके प्राण लेने वाली तलवार को बांयें हाथमें ले दाहिने हाथमें उसने फलक नामक ढालको धारण किया। एवं अन्य दाहिने हाथमें मणिसर्प के समान वाणके तरकस को धारण किया और यमराज की भुजदंडके समान शोभते हुए धनुष्यको दूसरे वायें हाथमें उठाया। एक हाथमें अपने यशवाद को जीत लाने वाले शंखको धारण किया और दूसरे हाथमें नागपाश लिया, इसी प्रकार एक हाथमें तीक्ष्ण भाला, वरछी वगैरह शख्न अंगीकार किये। अब वह दर्शन मात्रसे दूसरोंको भय पैदा करता हुआ साक्षात रावणके समान अत्यन्त भयंकर रूप धारण कर रत्नकुमार पर चढ़ाई कर आया। उसके भयानक रूपको देखते ही, विचारा शुकराज तो त्रासित हो रत्नसार के समीप