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श्राद्धविधि प्रकरण "यात्रियों के संकट दूर करने पर कुम्भारका दृष्टान्त" सगर चक्रवती के पौत्र भगीरथ राजाका जीव किसी एक पिछले भवमें कुम्भार था। किसी एक गांवमें रहनेवाले साठ हजार चोरोंने मिल कर यात्रा करने जाते हुए संघ पर लूट करनेका काम शुरु था उस वक्त वहां जाकर उसने भर सक प्रयत्नसे चोरोंका उपद्रव बन्द कराया। जिससे उसने बड़ा भारी पुण्य प्राप्त किया। इसी प्रकार यथाशक्ति सब श्रावकोंको उद्यम करना चाहिये।
खलि मि चोइनो गुरु, जणेणमन्नइ तहत्ति सव्वंपि।
चोएई गुरुजणपिह, पमाय खलिएसु एगते ॥ यदि प्रमादाचरण देखकर गुरु प्रेरणा करे तो उसे कबूल करना चाहिए, परन्तु यदि गुरुका प्रमादा वरण देखे तो उन्हें एकान्त में आकर प्रेरणा करे कि, महाराज! क्या यह उचित है ! सच्चरित्रवान, आप जैसे मुनिको इतना प्रमाद ! इस प्रकार उपालम्भ दे। ..
कुणई विणउवयार, भत्तिए समय समुचिमं सव्वं ।
शाढ गुणाणुराय, निम्मायं वहइ हियय पि॥ समय पर उचित भक्ति पूर्वक सर्व बिनयका उपचार करे, याने उन्हें जिस बस्तुकी आवश्यकता हो सो बहुमान पूर्वक समर्पण करे। गुरुके गुणका अनुरागी होकर हृदयसे निष्कपट रहे, सर्व प्रकारकी भक्ति करे, याने सामने जाना, उनके आजाने पर खड़ा होना, आसन देना, पैर दवाना, वस्त्र देने, पात्र देने, आहार देना और औषध वगैरह देना, एवं आवश्यकतानुसार वैद्यको बुलाना।
भावो क्यारमेसि, देसंतरमोवि सुपरई सयावि ।
इभ एवपाई गुरुजण, समुचिम मुविमं मुणेयव्वं ॥ ऊपर लिखा हुवा तो द्रव्य उपचार याने द्रव्य सेवा है, परन्तु यदि परदेश में गुरु हो तथापि उनसे समफित प्राप्त किया होनेके कारण, उन्हें निरंतर याद किया करे यह भावोपचार कहा जाता है । इत्यादिक गुरुका उचित समझना।
"नागरिकोंका उचित" जथ्य सयं निवसम्मई। नयरे तथ्येव जेकरि वसंति,
ससाण वित्तीणोते। नायरयानामवच्चति ॥ स्वयं जिस नगरमें रहता हो, उस नगरमें रहनेवाले, स्वयं जो ब्यापार करता हो उसी व्यापारका करनेवाले, या हरएक ब्यापार के करनेवाले, समान प्रवृत्ति वाले सब नगरवासी गिने जाते हैं।
समुचिम मिणयोतेसिं। जपेग चिचोहिं सप सुहदुहेहि ॥. . . वसणुस्सव तुल्लगया। गमेहिं निच्चपि होयव्वं ॥