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श्रादविधि प्रकरण
३१५ निर्लज शिरोमणि मनुष्यका जीवन क्या कामका है ? अर्थात पूर्वोक्त बात न जानने वाले मनुष्यका जीवन पशुसे भी बदतर है। पाशितुशयितु भोक्तुं । परिधातु प्रजरपतु। वेत्तियः स्वपरस्थाने । विदुषां स नरोग्रणी॥
जो मनुष्य अपने और दूसरेके घर बैठना, सोना, जीमना, पहरना, बोलना, जानता है वह विचक्षण पुरुषोंमें अग्रेसरी गिना जाता है।
"मूलसूत्रकी आठवीं गाथा" मझ्झण्हे जिण पूआ। सुपत्त दाणाई जुत्ति संजुत्ता ॥
पच्चख्खाइअ गीयथ्थ । अंतिए कुणई सझ्झायं ॥९॥ मध्यान्ह समय पूर्वोक्त विधिसे जो उत्तम भात पानी, वगैरह जितने पदार्थ भोजनके लिये तैयार किये हों वे सब प्रभुके सन्मुख चढानेकी युक्तिका अनुक्रम उलंघन न करके फिर भोजन करना। यह अनुवाद है (पहिली पुजाके बाद भोजन करना यह अनुवाद कहलाता है ) मध्यान्हकी पूजा और भोजनके समयका कुछ नियम नहीं, क्योंकि जब खूब क्षुधा लगे तब ही भोजनका समय समझना। मध्यान्ह होतेसे पहले भी यदि प्रत्याख्यान पार कर देवपूजा करके भोजन करे तो उसमें कुछ भी हरकत नहीं। आयुर्वेदमें बतलाया है किः
याममध्ये न भोक्तव्यं । यापयुग्मं न लंघयेत् ॥ यापमध्ये रसोत्पत्ति । युम्यादई बलक्षयः॥ ___ पहले प्रहरमें भोजन न करना, दो पहर उलंघन न करना, याने तीसरा पहर होनेसे पहले भोजन कर लेना। पहले प्रहरमें भोजन करे तो रसकी उत्पत्ति होती है। और दो पहर उलंघन करे तो बलकी हानि होती है।
"सुपात्र दानकी युक्ति" भोजनके समय साधुको भक्ति पूर्वक निमन्त्रण करके उन्हें अपने साथ घर पर लावे। या अपनी मर्जीसे घर पर आये हुये मुनिको देख कर तत्काल उठ कर उनके सन्मुख गमनाक्कि करे, फिर विनय सहित यह संविज्ञ भावित क्षेत्र हैं या अभावित (वैराग्य वान साधुओंका विचरना इस गांवमें हुवा है या नहीं ?) क्योंकि यदि गांवमें वैसे साधु विवरे हों तो उस गांवके लोग साधुओं को बहराने वगैरह के व्यवहार से विज्ञात होते हैं, वह क्षेत्र भावित गिना जाता है और जहाँ साधुओंका विचरन न हुवा हो वह क्षेत्र असं. भावित गिना जाता है । यदि भावित क्षेत्र हो तो श्रावक कम वोहरावे तथापि हरकत नहीं आती। परन्तु अभावित क्षेत्र हो तो अधिक ही वहराना चाहिये, इसलिये श्रावकको इस बातका विचार करनेकी आवश्यकता पड़ती है )२ सुकाल दुष्कालमें से कौमसा काल है ? ( यदि सुकाल हो तो जहां जाय वहांसे आहार मिल सकता है, परन्तु दुष्कालमें सब जगहसे नहीं मिल सकता, इसलिये श्रावकको उस वक्त सुकाल और