________________
श्राद्रविधि प्रकरण
३२३ कुमार भी कामदेव के समान रूपवान रत्नकुमार को देख कर जैसे कोई एक युवति कन्या दुल्हेको देख कर लज्जा, और हर्ष, विनोद वगैरह भावसे व्याप्त हो जाती है जैसे संकुचित होने लगा। उस प्रकारके विकार भावसे विधुरित हुवा वह तापस कुमार धिठाईके साथ उस हिंडोलेसे नीचे उतर रत्नसार कुमारके प्रति बोलने लगा कि, हे विश्ववल्लभ ! सौभाग्य के निधान तू हमें अपनी दृष्टि में स्थापन कर । याने हमारे सामने देख ! और स्थिर हो कर हम पर प्रसन्न हो ! जिसकी आँख अभी अपने मुखसे प्रशंसा करेंगे ऐसा बह आपका कौनसा देश हैं ? आप अपने निवाससे किस नगरको पवित्र करते हैं ? उत्सव, महोत्सव से सदैव आनन्दित आपका कौनसा कुल है ? कि जिसमें आपने अवतार लिया है। सारे बगीचेको सुरभित करनेवाले जाईके पुष्प समान जनोंको आनन्द देनेवाला आपका पिता कौन है ? कि जिसकी हम भी प्रशंसा करें! जगतमें सन्मान देने लायक माताओंमें से आपकी कौनसी माता है ? सजन लोगोंके समान जनताको आनन्ददायक आपके स्वजन सम्बंधी कौन हैं ? जिनमें आप अत्यन्त सौभाग्यवन्त गिने जाते हैं। महा महिमाका धाम आपका शुभ नाम क्या है ? कि जिसका हम आनन्द पूर्वक कीर्तन करें। क्या ऐसी अति शीघ्रताका कुछ प्रयोजन होगा कि जिसमें आप अपने मित्रोंके बिना एकले निकले हैं ? जिस प्रकार पकला केतुग्रह मनोवांछित देता है वैसे ही आप एकले किसका कल्याण करनेके लिये निकले हैं ? ऐसी क्या जल्दी है कि जिससे दूसरेकी अवगणना करनी पड़े? क्या आपमें ऐसा कुछ जादू है कि, जिससे दूसरा मनुष्य देखने मात्रसे ही आपके साथ प्रीति करना चाहे ! कुमार ऐसे स्नेह पूरित ललित लीला विलास वाले वचन सुन कर एकला ही खड़ा रहा इतना ही नहीं परन्तु अश्वरत्न भी अपने कान ऊंचे करके उन मधुर वचनोंको सुननेके लिये खड़ा रहा। कुमारके मनके साथ अश्वरत्न भी स्थिर हो गया। क्योंकि स्वामीकी इच्छानुसार ही उत्तम घोड़ोंकी चेष्टा होती है। उस तापस कुमारके रूप और वचन लालित्यसे मोहित हो रत्नसार कुमार पूर्वोक्त पूछे हुये प्रश्नोंके उत्तर अपने मुखसे देनेके योग्य न होनेसे चुप रह गया इतनेमें ही अवसर का जानकार वह वाचाल तोता उच्चस्वर से बोलने लगा कि हे महर्षि कुमार! इस कुमारका कुलादिक पूछनेका आपको क्या प्रयोजन है ? क्या आपको इस कुमारके साथ विवाहादि करनेका विचार है? कैसे मनुष्यका किस समय कैसा उचिताचरण करना सो जाननेमें तो आप चतुर मालूम होते हैं तथापि मैं आपको बिदित करता हूं कि अतिथी सर्व प्रकारसे सब तापसोंको मानने योग्य है : लौकिकमें भी कहा है कि:
गुरुरग्निद्विजातीना, वर्णानां व्राम्हणो गुरुः। पतिरेको गुरुस्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥
ब्राह्मणोंका गुरु अग्नि है, चार वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्रियोंका गुरु पति है, और अभ्यागत-अतिथि सबका गुरु है।
इसलिये यदि तेरा चित्त इस कुमारमें लीन हुआ हो तो कुमारका अति हर्षसे सविस्तर आतिथ्य कर ! तोतेके वचनचातुर्य से प्रसन्न हो कर तापसकुमार ने आग्रह पूर्वक अपने गले से कमलोंकी माला उतार कर तोतेके गलेमें डाल दी और वह रत्नसार कुमारसे कहने लगा कि हे कुमार! इस जगतमें प्रशंसाके योग्य