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श्राद्धविधि प्रकरण शत्रुका दूषण बोलना पडे तो अन्योक्ति में बोलना। माता, पिता, आचार्य, रोगी, महिमान, भाई, तपस्वी, बृद्ध, स्त्री, वालक, वैद्य, पुत्र, पुत्री, सगे सम्बन्धी, गोत्रीय, नौकर, बहिन सम्बन्धी कुटुम्ब, और मित्र इतने जनोंके साथ सदैव ऐसा बचन बोलना कि जिससे कदापि कलह होनेका प्रसंग उपस्थित न हो! मिष्ट बचन से मनुष्य दूसरोंको जीत सकता है। निरंतर सूर्यके सामने, चंद्र सूर्य के ग्रहणके सामने, गहरे कुएंके पानीमें
और सन्ध्या के आकाश सन्मुख न देखना। यदि कोई मैथुन करता हो, सिकार खेलता हो, नग्न पुरुष हो, यौवनवति स्त्री हो, पशु क्रीड़ा ( मैथुन लड़ाई ) और कन्याकी योनि इन्हें न देखना। तेलमें, जलमें, शस्त्रमें, पेशावमें और रुधिरमें समझदार मनुष्यको अपना मुख न देखना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे मनुष्यका आयुष्य टूटता है।
अंगीकार किये बचनका त्याग न करना। गई वस्तुका शोक न करना। किसी समय भी किसी की निन्दा उच्छेद न करना। बहुतोंके साथ वैर विरोध न करना। विचक्षण मनुष्यको हर एक कार्यमें हिस्सा लेना चाहिए और उस कार्यको निस्पृहता और प्रमाणिकता से करना चाहिये। सुपात्र पर कदापि मत्सर न रखना। यदि जाति समाजमें कुछ विरोध हो तो सब मिलकर उसका सुधार कर लेना चाहिए। यदि ऐसा न किया जाय तो जाति समाजमें मान्य मनुष्योंके मानकी हानि होती है और वैसा होनेसे लोगोंमें अपवाद भी होता है। जो मनुष्य अपनी जाति या समाज पर प्रेमभाव न रखकर परजाति पर प्रेम रखता हैं वह मनुष्य कुकर्दम राजाके समान नाशको प्राप्त होता है। पारस्परिक कलह करनेसे जाति या समाज नष्ट हो जाता है और पानीके साथ ही जिस प्रकार कमल वृद्धि पाता है वैसे ही यदि संपके साथ जाति या समाज कार्य करे तो वह भी वैसे ही वृद्धि प्राप्त करता है। दरिद्री, विपत्तिमें पडे हुए मित्रको स्वधर्मी, अपनी जातिमें बड़ा गिना जानेवाले, अपुत्र भगिनी, इतने मनुष्योंका बुद्धिवानको अवश्य पालन करना चाहिये। भन्य किसीको कुछ प्रेरणा करके कार्य करानेमें, दूसरेकी वस्तु बेचनेमें अपने कुलका अनुचित कार्य करनेमें चतुर मनुष्यको कदापि विचार रहित उतावल न करनी चाहिये। महाभारत आदिमें भी कहा है कि पिछली चार घड़ी रात रहने पर जागृत होना और धर्म अर्थका चिन्तन करना। कभी भी उदय और अस्तके समय सूर्यको न देखना। दिनमें उत्तर दिशा सन्मुख. बैठकर और रातको दक्षिण दिशा सन्मुख बैठकर विशेष हाजत लगी हो तो इच्छानुसार लघुनीति या बड़ीनीति करना। देवार्चनादिक कार्य करना हो, या गुरु वन्दन करना हो या भोजन करना हो तब जलसे आचमन करके ही करना चाहिये। विवक्षण पुरुषको द्रव्योपार्जन करनेका अवश्य उद्यम करना चाहिये। क्योंकि हे राजन् ! द्रव्योपार्जन करनेसे ही धर्म, काम, वगै. रह साधे जा सकते हैं। जो द्रव्य उपार्जन किया हो उसमेंसे चौथाई हिस्सा पारलौकिक कार्यमें खर्चना ।
और चौथाई हिस्सेका संचय करना। एवं अर्ध भागमेंसे अपना प्रतिदिन का सब प्रयोजन भरन पोषण करना, परन्तु विना प्रयोजन में न खरवना। मस्तक के बाल संवारना, दर्पण देखना, दतवन करना, देव. पूजा करना, इत्यादि कार्य प्रातःकाल ही याने पहले पहरमें ही करने चाहिए। अपना हित इच्छनेवाले मनुष्य को, अपने घरसे दूर ही पिशाव वगैरह मलोत्सर्ग करना चाहिये। टूटे फूटे आशन पर न बैठना ! फूटे हुये