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श्राद्धविधि प्रकरण
२७५ की पूर्ण मर्जी होगई। इससे वहां पर थोड़े दिन निकाल कर अपने कुटुम्बियोंको साथ ले वह वल्लभीपुर नगरमें गया। वहां पर दूसरा कुछ योग न बननेसे नगर दरवाजे के पास बहुतसे अहीर लोग बसते थे वहाँपर ही वह एक घासकी झोंपड़ी बांधकर आटा, दाल, घी, गुड, वगैरह बेचने लगा। उसका नाम काकुआक उन अहीर लोगोंको उच्चार करनेमें अटपटा मालूम देनेसे उसे रंक जैसा देख सब 'राका' नामसे बुलाने लगे। अब वह उस परचूनकी दुकानसे अच्छी तरह अपनी आजीविका चलाने लगा।
__उस समय कोई कापडिक अन्य दर्शनी योगी गिरनार पर जाकर बहुत वर्षों तक प्रयास करनेसे मरणके मुखमें ही न आ पड़ा हो ऐसा कष्ट सहन करके वहांकी रस कुम्पिकामें से सिद्ध रसका तूबा भर कर अपने निर्धारित मार्गसे चला जाता था । इतनेमें ही अकस्मात आकाश वाणी हुई कि “यह तूंबा काकुआकका है" इस प्रकारकी आकाश वाणी सुन कर बिचारा वह सन्यासी तो डरता हुवा अन्तमें बल्लभीपुर आ पहुंचा और गांवके दरवाजे के पास दूकान करने वाले उसने राका शेठके नजीक ही उतारा किया। उन दोनोंमें परस्पर प्रीतिभाव हो जानेसे वह संन्यासी सिद्ध रसके तूचेको राका शेटके यहां रख कर सोमेश्वर की यात्रार्थ चला गया।
राँका शेठने वह तूंबा पर्वके दिन रसोई करनेके चुल्हे पर बांध दिया। फिर कितने एक दिन बाद कोई पर्व आनेसे उस चुल्हे पर रसोई करते हुए तापके कारण ऊपर लटकाये हुये तूंबेमेंसे रसका एक बिन्दु चुल्हे पर रख्खे हुये तये पर पड़नेसे वह तत्काल ही सुवर्णमय बन गया। इससे दूसरा तवा लाकर चुल्हेपर चढाया उस पर भी तू बेमें से एक रसका विन्दु पड़नेसे वह सुवर्णका बन गया। इस परसे इस. 'बेमें सिद्ध रस भरा समझ कर उस योगीको वापिस देनेके भयसे याने उसे दबा रखनेके लालचसे राँका शेठने अपना माल मत्ता दूसरी जगह रख उस झोंपड़ीमें आग लगादी और वह गांवके दूसरे दरवाजेके समीप एक नई दुकान लेकर उसमें घीका व्यापार करने लगा। तू बेके रसके प्रतापसे जब चाहता है तब सुवर्ण बना लेता है। इस तरह सारे तू बेके रसकी महिमासे वह बड़ा भारी धनाढ्य होगया, तथापि वह घीका ही व्यापार करता रहा । एक समय किसी एक गांवकी अहीरिनी उसकी दूकान पर घी बेचने आयी। उसकी घीकी मटकी में से घी निकाल तोल कर नितरनेके लिए उसे ईढी पर रक्खी, इससे वह मटकी तत्काल ही घीसे भर गई। दूसरी दफा उसमें घी निकाल कर तोल कर फिरसे ईढो पर रख्खी जिससे फिर भी वह घीसे भरी नजर आई। यह देख रांका शेठने विचार किया कि सचमुच यह तो कुछ इस ई टीमें ही चमत्कार मालूम होता है, निश्चय होता है कि इस घासकी बनाई हुई ई ढोमें 'वित्रावेल है। इस विचारसे राँका शेठने कपट द्वारा अहीरनीसे उस ईढीको ले लिया। तुबेके सिद्ध रसके प्रतापसे उसने बहुत कुछ लाभ प्राप्त किया था, परन्तु जब वह रस समाप्त होने आया तब उतने में ही उसे वित्रावेल आ मिली। इसकी महिमासे वह अतुल सुवर्ण बनाने लगा इससे वह असंख्य धनपति तुल्य बन बैठा। तथापि वह धनका लोभी देनेके कम बजनके बाट और लेनेके अधिक बजनके बाट रखता था। ऐसे कृत्योंसे व्यापार करते हुये पापानुवन्धी पुण्यके बलसे व्यापारमें तत्पर रहते हुए वह महा धनाढ्य हुवा । इसी समय उसे कोई एक योगी मिला, उससे उसने नवीन सुवर्ण