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श्राद्धविधि प्रकरण
२७-८
भय हो, या मार्ग में किसी कारण प्रवासीको रोका जाता हो या रुकना पड़ता हो, या रोगादिका उपद्रव चलता हो, या मार्ग में चलना जोखम भरा हो, या मार्ग में कोई गांव न आकर भयंकर अटवीवाला रास्ता हो, या सन्ध्याके समय गमन करना पडे अथवा अन्धेरी रातमें चलना पडे, रक्षक या किसी साथीके विना गमन करना हो, इत्यादि ऐसे स्थानकों में यदि बिना विचारे प्रवृत्ति की जाय तो वह सचमुच ही प्राणधनकी हानि से महा अनर्थकारी हो जाती है । इस लिए ऐसे कालमें इस प्रकारकी मुसाफिरी कदापि न करना । फाल्गुन मसके बाद तिल पिलवाने, तिलका व्यापार करना, संग्रह करना तथा तिल खाना वगैरह सब कुछ कालविरुद्ध है । बर्षाऋतु तान्दलजा, वगरह सर्व प्रकारकी भाजी ( शाक ) खाना कालविरुद्ध है। जहां पर अधिक जीव उत्पन्न होते हों वैसी जमीन पर गाड़ी वगैरह चलाना महादोष का हेतु है इत्यादि सब कालविरूद्ध समझना ।
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"राज विरुद्ध "
राजाने जिस आचरण का निषेध किया हो उसका सेवन करना, या राजाको संमत न हो वैसा आचरण करना, जैसे कि राज्यके मान्य मनुष्यका अपमान करना, राजाने जिलका अपमान किया हो उसके साथ मित्रता रखना, राजविरोधीको 'बहुमान देना, राजाके शत्रुके साथ मिलाप रखना, उसके साथ विचार करना या उसके स्थान में जाकर रहना, या उसे ही अपने घरमें रखना, राजाके शत्रु की ओरसे आये हुए किसी भी मनुष्यको लोभसे अपने घर उतारना या उसके साथ व्यापार, रोजगार करना, राजाकी इच्छा विरुद्ध उसके शत्रुके आथ सहवास करना, राजाकी मर्जीसे विरुद्ध बोलना, नगरके लोगोंसे विरुद्ध बर्ताव करना, जिसमें स्वामिद्रोहादिक करनेकी राजमनाई हो वैसे आचार का सेवन करना । भुवनभानु के जीव रोहिणी के समान राजाकी राणीका अपवाद बोलना, यह सब राजविरुद्ध गिना जाता है । इसपर रोहिणीका दृष्टान्त बतलाया है। रोहिणी नामक एक शेठकी लड़की परम श्राविका थी । उसने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा शास्त्र के एक लाख श्लोक मुखपाठ किये थे । वह बड़ी श्रद्धालु भक्तिवती, धर्मानुरागी, और अपने धारण किये हुए व्रत, नियम पालन करनेमें सदैव सावधान थी । परंतु विकथाकी अति रसीली होनेसे हँसते हँसते एक दिन किसी के पास उससे ऐसा बोला गया कि 'यह राजाकी नई रानी तो व्यभिचारिणी है ।' यह बात परंपरा से दरबार तक पहुंची । अन्तमें राजाने सुन कर उस पर बड़ा गुस्सा किया और उसे दरबार में पकड़ बुला कर उसकी जीभ काटनेका हुक्म किया। परन्तु दीवानादि प्रधान पुरुषोंके कहने से राजाने वह हुक्म पीछे खींच लिया किन्तु उसे देशनिकाल किया। सारांश यह कि यद्यपि उस भवमें उसकी जीभ न काटी गई परन्तु मात्र इतना ही बोलने से उसने ऐसा नीच कर्म बांध लिया कि जिससे कितनेक भवों तक तो उसकी जीभ
छेदन होती रही और उस भवमें अन्य कितने एक अति दुःख सहन किये सो जुदे, इसलिए राजविरुद्ध न सज्जन मनुष्यको चाहिए कि वह परनिन्दा और स्वगुण वर्णनका परित्याग करे ।
बोलना ।
लोकनिन्दा बोलने से इस लोकमें भी अति दुःखके कारण उपस्थित होते हैं । तथा गुणकी निन्दा