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श्राद्धविधि प्रकरण
२६७ ___ उपरोक्त कारणमि जो सहाय करे उसे ही भाई कहा है। इसलिये वैसे प्रसंगमें सगे सम्बन्धियों की सहाय करना न भूलना।
उपरोक्त गाथामें कह गये कि, सगे सम्बन्धियों का उद्धार करना, परन्तु तात्विक दृष्टिसे विचार किया जाय तो सगे सम्बन्धियों का उद्धार अपना ही उद्धार है। क्योंकि कुंए पर फिरते हुए अरघट्ट के समान भरे हुये या रीते घटोंके समान लक्ष्मी एक जगह स्थिर नहीं रहती। जिस प्रकार अरघट्ट की घटिकाय एक तरफसे भरी हुई आती हैं और दूसरी तरफसे रीती होकर चली जाती हैं, इसी प्रकार लक्ष्मी भी आया जाया करती है, इसलिये जिस समय अपना सामर्थ्य हो उस समय दूसरोंको आश्रय देना न चूकना चाहिये। यदि अपनी चलती के समय दूसरों को आश्रय दिया हो तो वक्त पड़ने पर वे लोग भी अपने उपकारी को सहाय देनेमें तत्पर होते हैं। क्योंकि सदा काल मनुष्यका एक सरीखा समय नहीं रहता।
__ खाइज पिठिठ मंसं, न तेसिं कुज्जा न सुक्क कलह च,
तद पिरो हि मिति, न करिझ्म करिज पिरो हि, उसकी पीठका मांस खाना अच्छा है, परन्तु सूका कलह करना बुरा है, इससे सगे सम्बन्धियों के साथ शुष्क-निष्प्रयोजन कलह न करना। सगे सम्बन्धियों के शत्रुओंके साथ मित्रता न रखना, एवं उनके मित्रों के साथ विरोध न रखना।
बिना प्रयोजन एक हसी मात्रसे या विकथा करनेसे जो लड़ाई होती है उसे शुष्क कलह कहते हैं, वह करनेसे बहुत दिनकी प्रीति रूप लता छेदन हो जाती है।
तयभावे तग्गेहे, न बइज्ज च इज्ज अभ्य सबंध,
गुरु देव धम्प कज्जेसु, एक चिरो हि होयब्वं, जिस समय सम्बन्धियों के घरमें अकेली स्त्री हो तब उनके घर पर न जाना। सगोंके साथ द्रव्य सम्बन्धी लेना देना नारखना, गुरु, देव, धर्मके कार्य, सगे सम्बन्धी सब मिल कर ही करना योग्य है।
यदीच्छेद्विपुलं प्रीति, मीणि तत्र न कारयेत,
वाग्वादपर्थसंबन्धं, परोक्षे दारभाषणं (दर्शनं ) पाठांतर यदि प्रीति बढ़ानेकी इच्छा हो तो प्रीतिके स्थान में तीन बातें न करना। १ वचन बिवाद (हाँ ना, करने से उत्पन्न होने वाली लड़ाई ), २ द्रव्यको लेन देन, ३ मालिक के अभाव में उसकी पत्नीके साथ सम्भाषण न करना। ___ जव लौकिकके कार्यमें भी सगे सम्बन्धी मिलकर योग दें उसकी जिस प्रकार शोभा होती है, वैसे ही देव, गुरू, धर्मक कार्यमें इकडे मिल कर योग देनेसे अधिक लाभ और शोभा बढ़ती है। इसलिए वैसे कार्योंमें सब मिलकर प्रवृत्ति करना योग्य है । पंचोंका कार्य यदि पंच मिलकर करें तो उसमें शोभा बढ़ती है। इसपर पांच मंगुलियोंका दृष्टान्त इस प्रकार है:
अंगूठेके समीपकी पहली तर्जनी अंगुली बोली कि लेखन कला, वित्र कला वगैरह सब काम करने में मैं ही