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श्राद्धविधि प्रकरण
२७३ कांसका तृण असार और विरस-स्वाद रहित है तथापि आश्चर्यकी बात है कि, जो उत्तम प्राणी होता है वह सात क्षेत्र (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, मन्दिर, जिनबिम्ब और ज्ञान ) में उसका उपयोग कर देता है तो उससे उसकी इक्षुरस के समान दशा प्रगट होती है (असार वस्तु भी श्रेष्ट कार्योंमें नियोजित करनेसे सारके समान फल दे सकती है ) फिर भी कहा है कि:
खलोपि गविदुग्धं स्या। दुग्धमप्युरगे विषं ॥
पात्रापात्रविशेषेण । तत्पात्रे दानमुत्तमं ॥ तिलकी खल यदि गायके पेटमें गई हो तो वह दूध बन जाती है और यदि दूध सर्पके पेटमें गया हो तो वह विष बन जाता है। यह किससे होता है ? उसमें पात्रापात्र ही हेतु है, इसलिये योग्य पात्रमें ही धन देना उत्तम गिना जाता है।
सासाइतं पिजलं । पत्त विसेसेण अन्तरं गुरुमं ॥
अहिमुहपडिभं गरलं। सिप्य उडे मुत्ति होइ ॥ स्वाति नक्षत्रमें जो पानी बरसता है वही पानी पात्रकी विशेषतासे बहुत ही फेर फार वाला बन जाता है, क्योंकि वही पानी सर्पके मुहमें पड़नेसे विष हो जाता है और वही पानी सीपमें पड़नेसे साक्षात् मोती बन जाता है। .
इस विषय पर दृष्टान्त तो श्री आबू पर्वत पर बड़े उत्तुंग मन्दिर बनवाने वाले मन्त्री विमलशाह वगैरह का समझ लेना। उनका चरित्र संस्कृतमें प्रसिद्ध होनेसे, और ग्रन्थ बड़ा हो जानेके भयसे यहां पर नहीं दिया गया।
___ महा आरंभ याने पन्द्रह कर्मादानके ब्यापारसे या अघटित कारणोंसे उपार्जन की हुई लक्ष्मी यदि सात क्षेत्रोंमें न खची हो तो वह मम्मण शेठ और लोभानन्दी के समान निश्चयसे अपकीति और दुर्गतिमें डाले बिना नहीं रहती। इसलिये यदि अन्यायोपार्जित वित्त हो तो भी वह उत्तम कार्यमें खरचनेसे अन्तमें लाभ कारक हो सकता है, यह तीसरा भंग समझना।
४ अन्यायसे कमाये हुए धनकी कुपात्रमें योजना करना यह चौथा भंग गिना जाता है। कुपात्रको पोषनेसे श्रेष्ठ लोगोंमें निन्दनीय हो जाता है, याने इस लोकमें भी कुछ लाभ कारक नहीं होता; और परलोक में नीच गतिका कारण होता है। इससे विवेकी पुरुषोंको इस चतुर्थ भंगका सर्वथा त्याग करना चाहिये । इसलिये लौकिक शास्त्रमें कहा है कि,-.
अन्यायोपास्तवित्तस्य । दानमत्यन्त दोषकृत ॥
धेनु निहत्य तन्मांस । ध्वांनाणामिव तर्पणं ॥ अन्यायसे उपार्जन किये द्रब्यसे दान करना सो अत्यन्त दोष पूर्ण है। जैसे कि गायको मारकर उसके मांससे कौवोंका पोषण करना।
अन्यायोपार्जितर्विसे। बच्छ्राद्ध क्रियते ननैः॥