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श्राद्धविधि प्रकरण - इस प्रकार अपना द्रव्य या कुछ भी पदार्थ गया हो अथवा चुराया गया हो और उसके पीछे मिलने का सम्भव न हो तो उसे वोसरा देना चाहिए जिससे उसका पाप अपने आपको न लगे। इसी तरह अनन्त भवोंमें अपने जीवने किये हुए जो २ शरीर, घर, हाट, क्षेत्र, कुटुम्ब, हल हथियार आदि पापके हेतु हैं सो भी सब वोसरा देना । यदि ऐसा न करे तो अनन्त भव ऊपरांत भी किये हुए पापके कारणका पाप अनन्तवें भवमें भी आकर उसीको लगता है। और अनन्त भवों तक उसी कारणके लिए वैर विरोध भी चलता है। इस लिए विवेकी पुरुषोंको वह जरूर वोसरा देना ही योग्य है। पाप अथवा पापके कारण अनन्त भव तक हडकाये हुये कुत्ते के जहरके समान पीछे आते हैं। यह बात आगमके आशय विनाकी न समझना। इसलिए पांचवें अंग भगवती सूत्रके पांचवें शतकके छटे उद्देशे में कहा है कि, "किसी शिकारीने एक मृगको मारा, जिससे उसे मारा उस धनुष्यके बांसके और बाणके पणव-तांतके, बाणके अग्रभाग में रही हुई लोहकी अणी वगैरह के जीव (धनुष्य, बाण, पणव और लोहको उत्पन्न करने वाले जो जीव हैं ) जगतमें हैं उन्होंको अप्रतिपन से हिंसादिक अठारह पापस्थान की क्रिया लगती है।" ऐसा कथन किया होनेसे अनन्त भव तक भी पाप पीछे आता है यह सिद्ध होता है। . उपरोक्त युकिके अनुसार व्यापार करते हुए. कदाचित् लाभके बदले अलाभ या हानि हो तथापि उससे खेद न करना, क्योंकि खेद न करना यही लक्ष्मीका मुख्य कारण है। जिसके लिए शास्त्रकारों ने इसी वाक्य पर युक्ति बतलाई हैं कि
सुव्यवसायिनि कुशले। क्लेश सहिष्णौ समुद्यतारम्भे ॥
नरिपृष्टतो विलग्ने । यास्यति दूर कियलक्ष्मीः ॥१॥ ... व्यापार करनेमें हुशियार, क्लेशको सहन करने वाला एक दफा किया हुवा उद्यम निष्फल जाने पर भी हिम्मत रखकर फिरसे उद्यम करने वाला ऐसा पुरुष जब कामके पीछे पड़े तब फिर लक्ष्मी दौड़ २ कर कितनी दूर जायगी ? अर्थात् वैसा उद्योगी पुरुष लक्ष्मीको अवश्य प्राप्त करता है .. धान्य बोनेके समान पहलेसे बीज खोने बाद ही एकसे अनेक वीजकी प्राप्ति की जाती है, वैसे ही धन उपार्जन करनेमें कितनी एक दफा धन जाता भी है, तथापि उससे घबरा जाना या दीनता करना उचित नहीं, परन्तु जब यह जाननेमें आवे कि, अभी मुझे धन प्राप्तिका अन्तराय ही है तब धर्ममें दत्तचित्त हो धर्मसेवन फरना। जिससे उसका अन्तराय दूर होकर पुण्यका उदय प्रगट हो। उस समय इस उपायके बिना अन्य कोई भी उपाय काम नहीं करता। इसलिये अन्य बृत्तियोंमें मन न लगा कर जब तक श्रेष्ठ उदय न हो तब तक धर्म ही करना श्रेयस्कर है। कहा है कि. "कुमलाया हुवा वृक्ष भी पुनः वृद्धि पाता है, क्षीण हुवा चन्द्र भी पुनः पूर्ण होता है, यह समझ कर सत्पुरुष आपदाओं से सन्तापित नहीं होता। पूर्ण और हीन ये दो अवस्था जैसे चन्द्रमा को ही हैं परन्तु तारा नक्षत्रोंको वह अवस्था नहीं भोगनी पड़ती वैसे ही सम्पदा और विपदाकी अवस्था भी वड़ोंके लिए ही होती हैं। हे आम्रवृक्ष ! जिसलिये फाल्गुन मासमें अकस्मात ही तेरी समस्त शोभा हरण कर ली है,