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श्राद्धविधि प्रकरण सेवन किये पापके उदयसे इस भवमें दरिद्री मालूम होता है, दुःखी देख पड़ता है परन्तु किंचित् दयाके प्रभावसे इस लोकमें जैन धर्मको प्राप्त करता है उसे पुण्यानुबन्धी पाप कहते हैं। ( उसके पूर्वकृत पापोंको भोगतो है परन्तु नवीन पुण्य बांधता है ) ४ पापी, कठोर कर्म करने वाला, धर्मके परिणामसे रहित, निर्दय परिणामी, महिमासे रहित, निरन्तर दुखी होने पर भी पाप करनेमें निरत, पापमें आसक्त जीवोंको 'कालक सुनोरिया' चांडालके समान पापानुबन्धी पापवाले समझना।
वाद्य नौ प्रकारकी और अभ्यन्तर अनन्त गुणमयी जो ऋद्धियाँ कहीं हैं वे सब पुण्यानुबन्धी पुण्यके प्रतापसे प्राप्त की जा सकती हैं; परन्तु उन बाह्य और अभ्यन्तर ऋद्धियोंमें से जिसके पास एक भी ऋद्धि नहीं तथापि उसकी प्राप्तिके लिए कुछ उद्योग भी नहीं करता उसका मनुष्यत्त्व धिक्कारने योग्य है । जो मनुष्य लेश मात्र धर्मवासना से अखण्डित पुण्यको नहीं करता वह मनुष्य परभव में आपदा संयुक्त सम्पदोको पाता है। ___तथा यद्यपि किसी एक मनुष्यको पापानुबन्धी पुण्य कर्मके सम्बन्धसे इस लोकमें प्रत्यक्ष दुःख नहीं मालूम देता परन्तु वह सचमुच ही आगे जाकर या परभव में अवश्य दुःख पायगा। इसलिये कहा है कि जो मनुष्य धन प्राप्त करने में लोभी होकर पाप करता है और उससे जो लाभ पाता है, वह धन लाभ अणीपर लगाये हुए मांसके भक्षक मत्स्यके समान उसे नाश किये बिना नहीं रहता।
. उपरोक्त न्यायके अनुसार स्वामी द्रोह न करना। स्वामी द्रोह के कारण रूप दानचोरी वगैरह राजाशाका भंग करना ये सब बर्जने योग्य हैं। क्योंकि इस लोक और पर लोकमें अनर्थकारी होनेसे सर्वथा वर्जनीय है। तथा जिसमें दूसरेको जरा भी सन्ताप कारक हो सो भी न करना और न कराना। अपने आपको कम लाभ होने पर भी दूसरे लोगोंको हरकत पहुंचे ऐसा कार्य भी वर्जने योग्य है क्योंकि दूसरोंकी दुरशीस लेनेसे अपने आपको सुख समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकती, कहा है कि-मूर्खाईसे मित्र, कपटसे धर्म, दूसरोंको दुःख देनेसे सुख समृद्धि, सुखसे विद्या, कठोर बचनसे स्त्री, प्राप्त करनेकी इच्छा करे तो वह बिल. कुल मूर्ख है। जिससे लोग राजी रहें वैसी प्रवृत्ति करनेमें महा लाभ है। कहा है कि:- जितेन्द्रियता विनयसे प्राप्त होती है, सर्वोत्कृष्ट गुण विनयसे प्राप्त किया जा सकता है, सर्वोत्कृष्ट गुणसे लोक राजी होते हैं और लोगोंको खुश रखना ही सम्पदा पानेका कारण है।
. धनकी हानि या वृद्धि और संग्रह किसीके सामने न कहना। धनकी हानि, बृद्धि संख्या, गुप्त करना अन्य किसीके सामने प्रगट न करना। कहा है कि-पिताकी स्त्री, स्वयं किया हुवा आहार, अपना किया हुवा सुकृत, अपना द्रव्य, अपने गुण, अपना दुष्कर्म, अपना मर्म, अपना गुप्त विचार, ये दूसरोंको न कहना चाहिये। यदि कोई पूछे कि तेरे पास कितना धन है, तुझे कितनी आय होती है, तब कहना कि ऐसा प्रश्न करनेसे आपको क्या लाभ है ? अथवा यह सब कुछ कहनेमें मुझे क्या फायदा है ? इस प्रकार भाषा समिति में उपयोग रखकर उत्तर देना। यदि राजा वगैरहने पूछा हो तो सत्य हकीगत कह देना। इस लिये नीति शास्त्र में कहा है कि-मित्रके साथ सत्य, स्त्रीके साथ प्रिय, शत्रुके साथ झूठ और मिष्ट, एवं स्वामीके