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श्राद्धविधि प्रकरण
तब उसकी स्त्रीने कहा कि यदि वह अवश्य ही जानेवाली है तो फिर अपने हाथसे ही उसे धर्ममार्ग में क्यों न खर्च डालें ? कि जिससे हम आगामी भवमें तो सुखी हों। शेठके दिलमें भी यह बात बैठ गई इसलिये पति पत्नीने एक विचार हो कर सचमुच एक ही दिनमें अपना तमाम धन सातों क्षेत्रोंमें खर्च डाला। शेठ और शेठोनी अपना घर धन रहित करके मानो त्यागी ही न बन बैठे हों इस प्रकार होकर परिग्रहका परिणाम करके अधिक रखनेका त्याग कर एक सामान्य बिछौने पर सुख पूर्वक सो रहे । जब प्रातःकाल सोकर उठे तब देखते हैं तो जितना घरमें प्रथम धन था उतना ही भरा नजर आया। दोनों जने आश्चर्य चकित हुये परन्तु परिग्रह का त्याग किया होनेसे उसमेंसे कुछ भी परिग्रह उपयोग में न लेते। जो मिट्टी के वर्तन पहलेसे ही रख छोड़े थे उन्हींमें सामान्य भोजन बना खाते हैं। वे तो किसी त्यागी के समान किसी चीजको स्पर्श तक भी नहीं करते अब उन्होंने विचार किया कि हमने परिग्रह का जो त्याग किया है सो अपने निजी अंग भोगमें खर्चने के उपयोग में लेनेका त्याग किया है परन्तु धर्म मार्ग में खर्चनेका त्याग नहीं किया। इसलिये हमें इस धनको धर्म मार्ग में खर्चना योग्य है । इस विचारसे दूसरे दिन दुपहर से सातों क्षेत्रों में धन खर्चना शुरू किया । दीन, हीन, दुःखी, श्रावकों को तो निहाल ही कर दिया। अब रात्रिको सुख पूर्वक सो गये। फिर भी सुबह देखते हैं तो उतना ही धन घरमें भरा हुवा है जितना कि पहले था। इससे दूसरे दिन भी उन्होंने वैसा ही किया, परन्तु अगले दिन उतना ही धन घरमें आ जाता है। इस प्रकार जब दस रोज तक ऐसा ही क्रम चालू रहा तब दसवीं रात्रिको लक्ष्मी आकर शेठसे कहने लगी कि, वाहरे भाग्यशाली ! यह तूने क्या किया ? जब मैंने अपने जानेकी तुझे प्रथमसे सूचना दी तब तूने मुझे सदाके लिये ही बांध ली। अब मैं कहां जाऊं ? तूने यह जितना पुण्य कर्म किया है इससे अब मुझे निश्चित रूपसे तेरे घर रहना पड़ेगा। शेठ शेठानी बोलने लगे कि अब हमें तेरी कुछ आवश्यक्ता नहीं हमने तो अपने विचारके अनुसार अब परिग्रह का त्याग ही कर दिया है। लक्ष्मी बोली - "तुम चाहे जो कहो परन्तु अब मैं तुम्हारे घरको छोड़ नहीं सकती।” शेठ विचारने लगा कि अब क्या करना चाहिये यह तो सचमुच ही पीछे आ खड़ी हुई। अब यदि हमें अपने निर्धारित परिग्रहसे उपरान्त ममता हो जायगी तो हमें महा पाप लगेगा, इसलिये जो हुवा सो हुवा, दान दिया सो दिया। अब हमें यहां रहना ही न चाहिये । यदि रहेंगे तो कुछ भी पापके भागी बन जायंगे । इस विचारसे वे दोनों पति पत्नी महालक्ष्मीसे भरे हुये घर वारको जैसाका तैसा छोड़कर तत्काल चल निकले। चलते हुये वे एक गाँव से दूसरे गांव पहुंचे, तब उस गांवके दरवाजे आगे वहाँका राजा अपुत्र मर जानेसे मंत्राधिवासित हाथीने आकर शेठ पर जलका अभिषेक किया, तथा उसे उठा कर अपनी स्कंध पर बैठा लिया। छत्र, चमरादिक, राजचिन्ह आप प्रगट हुये जिससे वह राजाधिराज बन गया। विद्यापति विचारता है अब मुझे क्या करना चाहिये ? इतनेमें ही देववाणी हुई कि जिनराज की प्रतिमाको राज्यासन पर स्थापन कर उसके नामसे आज्ञा मान कर अपने अंगीकार किये हुये परिग्रह परिणाम व्रतको पालन करते हुये राज्य चलानेमें तुझे कुछ भी दोष न लगेगा। फिर उसने राज्य अंगीकार किया परन्तु अपनी तरफसे जीवन पर्यन्त त्यागवृत्ति पालता रहा। अन्तमें स्वगसुख भोग कर वह पांचवें भवमें मोक्ष जायगा ।