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श्राद्धविधि प्रकरण
२४३ __ लेन देनके सम्बन्धमें भ्रान्ति होनेसे या 'विस्मृत होजाने से यद्यपि हरेक प्रकारका विवाद होता है तथापि अरस परस सर्वथा तकरार न करना। परन्तु उसका चुकादा करनेके लिए लोक प्रख्यात मध्यस्थ वृत्ति वाले प्रमाणिक न्याय करने वाले चार गृहस्थोंको नियुक्त करना । वे मिल कर जो खुलासा करें सो मान्य करना । ऐसा किये बिना ऐसी तकरारें मिट नहीं सकतीं। इसलिए कहा है कि, ज्यों परस्पर गुथे हुए सिरके बालोंको अपने हाथसे मनुष्य जुदे नहीं कर सकता या सुलझा नहीं सकता, परन्तु कंघीसे ही वे सुलझाये जा सकते हैं वैसे ही दो सगे भाइयोंमें या मिओंमें भी यदि परस्पर कुछ तकरार हो तो वह किसी दूसरेसे ही सुलझाई जा सकती है। तथा जिन्हें मध्यस्थ नियुक्त किया हो उन्हें अपक्षपातसे जिसे जैसा हिस्सा देना योग्य है उसे वैसा ही देना चाहिये । उन दोनोंमें से किसीका भी पक्षपात न करना चाहिये। एवं लोभ या दाक्षिण्यता रख कर या रिसबत वगैरह लेकर अन्याय न करना चाहिये, क्योंकि, सगे सम्बन्धी, स्वधर्मी या हरएक किसी दूसरेके काममें भी लोभ रखना यह सबमें विश्वास घातका काम है अतः वैसा न करना।
निर्लोभ वृत्तिसे न्याय करके विवाद दूर करनेसे मध्यस्थ को जैसे महत्वादि बड़ा लाभ होता है, वैसे ही यदि पक्षपात रख कर न्याय करे तो दोष भी वैसा ही बड़ा लगता है। सत्य विचार किये बिना यदि दाक्षिण्यतासे फैसला किया जाय, तो कदाचित् देनदारको लेनदार और लेनदार को देनदा' ठरा दिया जाय, ऐसे भी सिी लालच वश या गैर समझसे बहुत दफा फैसला हो जाता है, इसलिए न्यायाधीश को यथार्थ रीतिसे दोनों का पक्षपात किये बिना न्याय करना चाहिये। अन्यथा न्याय करने वाला बड़े दोषका भागीदार बनता है।
"न्यायमें अन्याय पर शेठकी पुत्रीका दृष्टान्त" सुना जाता है कि, एक धनवान शेठ था। वह शेठाईकी बड़ाई एवं आदर बहुवानका विशेष अर्थी होनेसे सवकी पंचायतमें आगेवानके तौर पर हिस्सा लेता था। उसकी पुत्री बड़ी चतुरा थी। वह वारंवार पिताको समझाती कि पिताजी अब आप वृद्ध हुए, बहुत यश कमाया अब तो यह सब प्रपंव छोड़ो। शेठ कहता है कि, नहीं मैं किसीका पक्षपात या दाक्षिण्यता नहीं करता कि जिससे यह प्रपंव कहा जाय, मैं तो सत्य न्याय जैसा होना चाहिये वैसा ही करता हूं! लड़की बोली पिताजी ऐसा हो नहीं सकता। जिसे लाभ हो उसे तो अवश्य सुख होगा परन्तु जिसके अलाभमें न्याय हो उसे तो कदापि दुःख हुये बिना नहीं रहता। कैसे समझा जाय कि वह सत्य न्याय हुवा है। ऐसी युक्तियोंसे बहुत कुछ समझाया परन्तु शेठके दिमागमें एक न उतरी। एक समय वह अपने पिताको शिक्षा देनेके लिए घरमें असत्य झगड़ा ले बैठी कि पिताजी ! आपके पास मैंने हजार सुवर्ण मोहरें धरोहर रक्खी हुई हैं, सो मुझे वापिस दे दो। शेठ भाश्चर्य चकित होकर बोला कि बेटी आज तू यह क्या पकती है ? कैसी मोहरें क्या बात ? विचक्षणा बोली-"नहीं नहीं । जबतक मेरी धरोहर वापिस न दोगे तबतक मैं भोजन भी न करूंगी और दूसरोंको भी न खाने दूंगी। ऐसा कहकर दरवाजे के बीचमें बैठकर जिससे हजारों मनुष्य इकडे हो जाय उस प्रकार चिल्लाने लगी और सॉफ २ कहने