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श्राद्धविधि प्रकरण
विचारपूर्वक कार्य करने वालेको उसके गुणमें लुग्ध हो बहुतसी संपदाय स्वयं आ प्राप्त होती हैं। यह नीति वाक्य स्मरण करके शारदानन्दको न मार कर उसे गुप्त रीति से अपने घर पर रख लिया। एक समय विजयपाल राजकुमार शिकार खेलनेके लिए निकला था, वह एक सुअरके पीछे बहुत दूर निकल गया । सन्ध्या हो जाने पर एक सरोवर पर जाकर पानी पीके सिंहके भयसे एक वृक्ष पर चढ़ बैठा। उसी वृक्ष पर एक व्यंतर देव किसी एक बन्दर के शरीर में प्रवेश करके राजकुमारको बोला कि तु पहले मेरी गोदमें सोजा । ऐसा कह कर थके हुए कुमारको उसने अपनी गोद में लिया। जब राजकुमार जागृत हुवा तब चन्दर उसकी गोदमें सोया । उस समय क्षुधासे अति पीड़ित वहांपर एक व्याघ्र आया। उसके बचनमे राजकुमारने अपनी गोद उस बन्दरको नीचे डाल दिया, इससे वह बन्दर व्याघ्रके मुखमें आ पड़ा । व्याघ्रको हास्य आनेसे बन्दर उसके मुह से निकल कर रोने लगा । तब व्याघ्र के पूछने पर उसने उत्तर दिया कि हे व्याघ्र ! जो अपनी जातिको छोड़कर दूसरी जातिमें रक्त बने हैं मैं उन्हें रोता हूं कि उन मूर्खोका न जाने भविष्य कालमें क्या होगा ? यह बात सुनकर राजकुमार लज्जित हुवा । फिर उस व्यंतर देवने राजकुमार को पागल करदिया । इससे वह कुमार सब जगह 'बिसेमिरा' ऐसे बोलने लगा। कुमारका घोड़ा स्वयं घर पर गया, इससे मालूम होने पर तलास कराकर राजाने जंगलमेंसे कुमारको घर पर मंगवाया । अब कुमारको अच्छा करानेके लिये बहुतसे उपचार किये गये मगर उसे कुछ भी फायदा न हुआ, तब राजाको विचार पैदा हुवा कि यदि इस समय शारदानन्द होता तो अवश्य वह राजकुमार को अच्छा करता, इस विचारसे उसने शारदानन्द गुरुको याद किया। फिर राजाने इस प्रकार ढिंढोरा पिटकाया कि जो राजकुमार को अच्छा करेगा मैं उसे अर्द्ध राज्य दूंगा। इससे दीवानने राजासे आकर कहा कि मेरी पुत्री कुछ जानती है। अब पुत्रको साथ लेकर राजा दीवानके घर गया। वहां पड़देके अन्दर बैठे हुए शारदानन्द ने नवीन बार श्लोक रचकर राजकुमार को सुनाकर उसे अच्छा किया। वे श्लोक नीचे मुजब थे:
“विश्वासप्रतिपन्नानां । वंचने का विदग्धता || अंकमारुह्य सुप्तानां । हंतु किं नाम पौरुषं ॥ १ ॥ सेतु' गत्वा समुद्रस्य | गंगासागरसंगमे ॥ ब्रह्मरा मुच्चते पापें । मित्रद्रोहा न मुच्यते ॥ २ ॥ मित्रद्रोही कृतघ्नश्च । स्तेयी विश्वासघातकः ॥ चत्वारो नरकं यान्ति । यावचन्द्रदिवाकरौ ॥ ३ ॥ राजस्वं राजपुत्रस्य । यदि कल्याण वच्छसि ॥ देहि दानं सुपात्रेषु । गृही दानेन शुध्यति ॥ ४ ॥
विश्वास रखने वाले प्राणियों को ठगनेमें क्या चतुराई गिनी जाय ? और गोदमें सोते हुएको मार डालने में क्या पराक्रम किया माना जाय ? राजकुमार क्षण क्षण में "विसेमिरा” इन चार अक्षरोंका उच्चारण किया करता था, सो पहिला श्लोक सुनकर “विसेमिरा" मेंसे 'वि' अक्षर भूल गया और 'सेमिरा' बोलने लगा ! ( १ ) जहां पर गंगा और समुद्रका संगम होता है याने जहां मगध वरदाम और प्रभास नामक तीर्थ है, अर्थात् समुद्र के किनारे तक जाकर तीर्थ यात्रा करता फिरे तो ब्रह्मचर्य पालने वालेको मारनेके पापसे मुक्त होता है परन्तु मित्रद्रोह करनेके पापसे छूट नहीं सकता । २ यह श्लोक सुननेसे राजकुमारने दूसरा अक्षर बोलना छोड़ दिया । अब बहू 'मिरा' शब्द बोलने लगा । ( ३ ) मित्र द्रोही, कृतघ्न, चोर, विश्वास घातक,