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श्राद्धविधि प्रकरण एक कोनेमें जा बैठा। अब उसे दूसरोंकी पंचायत में जाना दूर रहा दूसरोंको मुह बतलाना या घरसे बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया। घरमें कुछ शांति हो जाने बाद शेठके पास आ कर भाई बहिन और माताके सुनते हुए विवक्षणा बोली-क्यों पिताजी ! “यह न्याय सञ्चा है या झूठा ? इसमें आपको कुछ दुःख होता है या नहीं ?" शेठने कहा- - इससे भी बढ़ कर और क्या अन्याय होगा! यदि ऐसे अन्यायसे भी दुःख न होगा तो वह दुनियां में ही न रहेगा। विचक्षणा ने हजार सुवर्ण मुद्राओंकी थैली ला कर पिताको सोंपी और कहा"पिताजी ! मुझे आपका द्रव्य लेनेकी जरूरत नहीं। यह तो परीक्षा बतलानी थी कि आप न्याय करने जाते हैं उनमें ऐसे ही न्याय होते हैं या नहीं ? इससे दूसरे कितने एक लोगोंको ऐसा ही दुःख न होता होगा ? इससे पंचोंको कितना पुण्य मिलता होगा ? मैं आपको सदैव कहती थी परन्तु आपके ध्यानमें ही न आता था इसलिए मैंने परीक्षा कर दिखलानेके लिए यह सब कुछ बनाव किया था। अब न्याय करना वह न्याय है या अन्याय ? सो बात सत्य हुई या नहीं, अबसे ऐसे पंचायती न्याय करनेमें शामिल होना या नहीं ? शेठ कुछ भी न बोल सका। अन्तमें विचक्षणा ने शांत करके पिताको न्याय करने जानेका परित्याग कराया। इसलिए कहीं कहीं पर पूर्वोक्त प्रकारसे न्यायमें भी अन्याय हो जाता है इससे न्याय करने में उपरोक्त दृष्टान्त पर ध्यान रख कर न्यायकर्ता को ज्यों त्यों न्याय न कर देना चाहिये, परन्तु उसमें बड़ी दीर्घ दृष्टि रख कर न्याय करना योग्य है ? जिससे अन्यायसे उत्पन्न होने वाले दोषका हिस्सेदार न बनना पड़े।
"मत्सर परित्याग" दूसरों पर मत्सर कदापि न करना चाहिए, क्योंकि जो दूसरा मनुष्य कमाता है वह उसके पुण्योदय होनेसे अलभ्य लाभ प्राप्त करता है। उसमें मत्सर करके ब्यर्थ ही अपने दोनों भवमें दुःखदायी कर्म उपार्जन करना योग्य नहीं । इसलिए हम भी दूसरे ग्रन्थमें लिख गये हैं कि “मनुष्य जैसा दूसरों पर विचार करे वैसा हो अपने आपको भोगना पड़ता है। इस विचारसे उत्तम मनुष्य दूसरोंकी बृद्धि होती देख कदापि मत्सर नहीं करते" (लौकिकमें भी कहा है कि जो चिन्तवन करे परको वही होवे घरको)। ब्यापार में खराब विचारोंका भी परित्याग करना चाहिये।
धान्यके व्यापारी, करियानेके व्यापारी, औषध बेचने वाले, कपड़ेके व्यापारी, इन्हें अपना व्यापार चलाते हुये दुर्भिक्ष-अकाल और रोगोपद्रव की वृद्धिको चाहना ३ दापि न करनी चाहिये, एवं वस्त्रादिक वस्तुके क्षयकी चिन्तवना भी न करनी चाहिये । अकाल पड़े तो धान्य अधिक मँहगा हो या रोगोपद्रव की वृद्धि हो तो पन्सारी का क्रयाणा या औषध करने वाले को अधिक लाभ हो ऐसा विचार न करना, क्योंकि सारे जगतको दुःख कारक ऐसे उपद्रव की वाच्छा करनेसे उत्पन्न होने वाले लाभसे उसका क्या भला होगा! तथा दैव योगसे कदाचित दुर्भिक्ष पड़े तथापि उसको अनुमोदना भी न करना क्योंकि व्यर्थ ही मानसिक मलीनता करनेसे भी अत्यन्त दुःखदायी कर्म बन्धन होता है। जब मानसिक मलीनता करनेका व्यापार भी त्यागने योग्य कहा है तब फिर उसकी अनुमोदना करना किस तरह योग्य कहा जाय ?