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श्राद्धविधि प्रकरणे इस तरह जिसने सच्ची राजकीय सेवा की हो, उसे अलम्य लाभ हुये बिना नहीं रहता । राजकीय सेवा. अन्य अनर्थोंको भी न भूलना चाहिये।
दीवान पदवी, सेनापति पदवी, नगर शेठ पदवी, वगैरह सर्व प्रकारकी पदवियां, राजकीय सेवा गिनी जाती है । यह राजकीय व्यापार देखने में बड़ा आडम्बर युक्त मालूम होता है, परन्तु वह सचमुच ही पापमय, असत्यमय, और अन्तमें उसमेंसे प्रत्यक्ष दीख पड़ते असार दृश्यसे श्रावकोंके लिए वह प्रायः वर्जने ही योग्य है। क्योंकि, इसके लिए शास्त्रकारोंने लिखा है कि
नियोगी यत्र यो मुक्त, स्तत्र स्तेयं करोति सः॥ किं नाम रजकः क्रीत्वा, वासांसि परिधास्यति ॥ १॥ अधिकाधिकाधिकाराः, कारएवाग्रतः प्रवर्त्तन्ते ॥
प्रथमं नवं धनं तदनु । बन्धन नृपति नियोगजुर्षां ॥२॥ __ जिसे जिस अधिकार पर नियुक्त किया हो वही उसमेंसे चोरी करता है । जैसे कि तुम्हारे मलीन कपड़े धोनेवाला धोबी क्या मोलको लाकर वस्त्र पहनेगा ? यहां पर राजकीय बड़े बड़े अधिकार प्रत्येक ही कारागार समान हैं । वे अधिकार प्रथम तो अच्छी तरह पैसा कमवाते हैं परन्तु अन्तमें बहुत दफा जेलखाने की हवा भी खिलवाते हैं।
"सर्वथा वर्जने योग्य राज व्यापार यदि राजकीय व्यापार सर्वथा न छोड़ा जाय तथापि दरोगा, फौजदार, पुलिस अधिकार वगैरह पदवियां अत्यन्त पाप मय निर्दयी लोगोंके ही योग्य होनेसे श्रावकके लिए सर्वथा वर्जनीय हैं। कहा है कि
गोदेव करणारत, तलबत्तक पदकाः॥
ग्रामोत्तरश्च न प्रायः। सुखाय प्रभवत्यमी॥१॥ दीवान, कोतवाल, फौजदार, दरोगा, तलावर्तक, नम्बरदार, मुखी, पुरोहित, इतने अधिकारोंमें से मनुष्योंके लिए प्रायः एक भी अधिकार सुखकारी नहीं होता। ऊपर लिखे हुए कोतवाल, नगर रखवाल, सीमा पाल, नम्बरदार वगैरह कितने एक सरकारी पदवियोंके अन्य अधिकार यदि कदाचित् स्वीकार करे तो वह मन्त्री वस्तुपाल साह श्री पृथ्वीधर, आदिके समान ज्यों अपनी फीति बढ़े त्यों पुण्य कीर्ति रूप कार्य करे । परन्तु अन्यायके वर्तावसे जिसके पीछेसे जैनधर्म की निन्दा हो वैसा कार्य न करे। इस विषयमें कहा है कि,:
नृपव्यापारपापेभ्यः, स्वीकृतं सुकुतं न यः॥
तान् धूलिधावकेभ्योपि । मन्ये मूढतरान् नरान् ॥२॥ १. . पापमय राज व्यापारसे भी जिसने अपना सुकृत न किया तो मैं धारता हूं कि, वह धूल धोने वालों से भो अत्यन्त मूर्ख शिरोमणि है।