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श्राद्धविधि प्रकरण गिनने लायक है, और दूसरे कितने एक गुणोंसे अधिक गुणवान संपदामें और आपदामें साथ रहने वाले अपनी स्त्री समान मित्र जैसे गिने जाते हैं।
राजा तुष्टोपि भृत्यानी। मानपात्रं प्रयच्छति ॥
तेतु सन्मानितास्तस्य । पाणेरप्युप कुर्वते ॥३॥ जब राजा तुष्टमान हो तब नौकरको मात्र मान देता है परन्तु इतने मान मात्र देनेसे स्वामीका वह अपने प्राण देकर भी उपकार करता है । तथा सेवा करना सो निरन्तर अप्रमादि होकर करना, जिससे लाभ मिल सके। इसके लिये कहा है कि, :
सर्पान् व्याघान् गजान सिहान् । दृष्टोपायै बंशीकृतान् ॥
राजेति कियति मात्रा । धीमता मप्रमादिनां ॥४॥ .. सर्प, व्याघ्र, हाथी, सिंह, ऐसे बलिष्ठोंको भी जब उपायसे वश कर लिया जासकता है तव फिर अप्रमादी बुद्धिमान राजाको वश करले इसमें क्या बड़ी बात है ?
- 'राजा या खामीको वश करनेकी रीति"
बैठे हुए स्वामीके पास जाकर उसके मुख सामने देख दो हाथ जोड़ कर सम्मुख बैठना स्वामीका स्वभाव पहिचान कर उसके साथ वात चीत करना। जब स्वामी बहुतसे मनुष्यों की सभामें बैठा हो तब उसके अति समीप न बैठना, एवं अति दूर भी न वैठना, तथा बरावर में भी न बैठना, पीछे भी न बैठना, आगे भी न बैठना, क्योंकि मालिकके विल्कुल पास बराबर वैठनेसे उसे भीड़ होती है, बहुत दूर बैठनेसे अकलमन्दी नहीं गिनी जाती, आगे बैठनेसे मालिकका अपमान गिना जाता है, वहुत पीछे बैठनेसे मालिकको मालूम न रहे कि अपना आदमी यहां है या कहीं चला गया। इसलिये मालिकके पास सामने नजरके आगे बैठना ठीक है । यदि स्वामीके पास कुछ अर्ज करना हो तो निम्न लिखे समय न करना। ___थका हुवा हो, भूखा हो, क्रोधायमान हो, उदास हो, सोनेकी तैयारी करते समय, प्यास लगी हो उस समय अन्य किसीने अर्ज की हो उस समय स्वयं अपने मालिकको किसी प्रकारकी अर्ज न करना। क्योंकि वैसे समय अर्ज करनेसे वह निष्फल जाती है।
___ राजाकी माता, रानी, कुमार, राजमान्य प्रधान, राजगुरु, और दरवान इतने मनुष्योंके साथ राजाके समान ही वर्ताव करना याने उनका हुक्म मानना।
"राजाका विश्वास न होनेपर दीपकोक्ति"
आदौ मय्यैवाय मदिपिनूनं नतद्दहेन्मा मवही लितोपि॥
.. इति भ्रमा दङ्ग ली पनणापि स्पृशेतनो दीप इवावनीपः॥ .. - यह दीपक सचमुच मैंने ही प्रथमसे प्रगट किया है इस लिये यदि मैं इसकी अवगणना कहंगा तो मुझे यह कुछ हरकत न करेगा, ऐसी भ्रांतिसे अंगुलिमात्र से भी कभी उसका स्पर्श न करना । इसी तरह इस