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श्राद्धविधि प्रकरणा
जब उसका दंभ खुल जायगा तब वह धर्मकी निन्दा कराने वाला हो सकता है। विशेषतः धर्मानुष्ठान की निन्दा अपवाद न होने देने के लिए सज्जन दुर्जन के समान भीख मांगना ही नहीं। यदि धर्मनिन्दा का निमित्त स्वयं बने तो इससे उसे परभव में धर्मप्राप्ति होना भी दुर्लभ होता है । इत्यादि अन्य भी दोषोंकी प्राप्ति होती है । इस विषय में ओघ नियुक्ति में साधुको आश्रय करके कहा है कि, -
छक्काय देयावं तोपि । संजनो दुल्लहं कुराई बोहिं ॥
श्राहारे निहारे । दुगंछिए पिंड गहणेय ॥ १ ॥
जो साधु छह कायक दया पालने वाला होने पर भी यदि दुर्गंच्छ नीच कुल, (ब्राह्मण बनिये बिना रंगेरे जाट वगैरह कुल ) का आहार पानी वगैरह पिंड ग्रहण करता है वह अपनी आत्माको बोधिबीज की प्राप्ति दुर्लभ करता है। भिक्षासे किसीको लक्ष्मीके सुख आदिकी प्राप्ति नहीं होती ।
लक्ष्मीर्णसति बाणिज्ये । किंचिदस्ति च कर्णणे ॥
अस्तिनास्ति च सेवार्या । भिक्षायां न कदाचन ॥
लक्ष्मी व्यापारमें निवास करती है, कुछ २ खेती करने में भी मिलती है, नौकरी करनेमें तो मिले भी और न भी मिले, परन्तु भिक्षा करनेमें तो कभी भी लक्ष्मीका संग्रह नहीं होता ।
भिक्षासे उदरपूर्ण मात्र हो सकता है परन्तु अधिक धनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। उस भिक्षावृत्ति का उपाय मनुस्मृति के चौथे अध्याय में नीचे मुजब लिखा है:
ऋनाऽमृताभ्यां जीवेत । मृतेन प्रमृतेन वा ॥
सत्यानृतेन चैवापि । न श्वत्या कथंचन ॥ १ ॥
उत्तम प्राणीको ऋत और अमृत यह दो प्रकारकी आजीविका करनी चाहिये; तथा मृत और प्रमृत नामकी आजीविका भी करनी चाहिये । अन्तमें सत्यानृत आजीविका करके निर्वाह करना, परन्तु श्ववृत्ति कदापि न करना चाहिये । याने श्वानवृत्ति न करना ।
जिस तरह गाय चरती है उस प्रकार भिक्षा लेना ऋत, बिना मांगे बहुमान पूर्वक दे सो अमृत, मांगकर ले सो मृत, खेती बाड़ी करके आजीविका चलाना सो प्रमृत, व्यापार करके आजीविका चलाना सो सत्यानृत । इतने प्रकार से भी आजीविका चलाना परन्तु दूसरेकी सेवा करके आजीविका चलाना सो श्ववृत्ति गिनी जाती है। इस लिए दूसरेकी नौकरी करके आजीविका न चलाना ।
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व्यापार
इस पांच प्रकारकी आजीविका में से व्यापारी लोगोंको द्रव्योपार्जन करनेका मुख्य उपाय व्यापार ही है लक्ष्मी निवासके बिषयमें कहा है कि:--
महूमहणस्सयवच्छे। नचैव कमलायरे सिरि बसई ॥ किंतु पुरिसाण ववसाय । सायरे तीई सुहहाणं ॥