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श्राद्धविधि प्रकरण
है, वैसे ही कोठी के अन्दर रक्खे हुए पुरुषके कलेवरमें बाहरसे अन्दर जाकर जीव उत्पन्न हुए हैं ऐसा माननेमें Sarr हरकत है ? आना जाना करते हुए भी चर्मचक्षु वाला कोई न देख सके ऐसे ही अरूपी जीवको कोठीमें आते जाते कौन रोक सकता है ? इसलिए हे राजन् ! आपके दिये हुए दृष्टान्तोंका हमारे दिये हुए उत्तरके अनुसार विचार करो कि आत्मा है या नहीं। गुरु महाराजका वचन सुनकर राजा बोला स्वामिन्! आप कहते है उस प्रकार तो आत्मा और पुण्य पाप साबित होता है और यह बात मुझे सत्य जंचती है । परन्तु मेरी कुल परम्परासे आए हुए नास्तिक मतको मैं कैसे छोड़ सकूं ? गुरु बोले कि, यदि कुछ परम्परासे दुख दारिद्र्य ही चला आता हो तो क्या वह त्यागने योग्य नहीं हैं ? यदि वह दुख दारिद्र त्यागने योग्य ही हैं तब फिर जिससे आत्मा अनन्त भव तक दुखी हो ऐसा मत त्यागने योग्य क्यों न हो ? यह बचन सुन राजा बोध पाकर श्रावकके वारह व्रत अंगीकार करके विचारने लगा। कितनेक वर्ष बाद एक दिन प्रदेशी राजा पोषध लेकर पोषधशाला में बैठा था, उस वक्त उसकी सूर्यकान्ता रानी परपुरुष के साथ आसक होनेसे उसे भोजन में जहर मिलाकर दे गई। यह बात उसे मालूम पड़नेसे चित्रसारधिके वचनसे उसी समय अनशन करके जहर समाधि मरण पाकर सौधर्म देवलोक में सूर्याभ नामा विमान में सूर्याभ नामक देवता उत्पन्न हुवा | देनेवाली सूर्यकान्ता रानी यह मेरी बात जाहिर होगई इस विचारसे भयभीत हो जंगलमें चली गई। वहां अकस्मात् सर्प दंश होनेसे दुर्ध्यानसे मृत्यु पाकर नरकमें नारकीतया उत्पन्न हुई ।
आमल कल्पा नामकी नगरीके बाहर श्री महाबीर स्वामी समवसरे थे, वहां सूर्याभदेव उन्हें बंदन करने गया और अपनी दिव्य शक्तिसे अपनी दाहिनी और बाईं भुजाओंमें से एक सौ आठ देवकुमार और देवकुमारी प्रगट करके भगवानके पास बत्तीस बद्ध नाटक करके जैसे आया था वैसे ही स्वर्गमें चला गया । उसके गये बाद गौतम स्वामी ने उसका सम्बन्ध पूछा। इससे उपरोक्त अनुसार सर्व हकीकत कहकर भगवान ने अन्तमें विदित किया कि यह महा विदेहमें सिद्धि पदको प्राप्त होगा। श्री आम नामक राजा वप्पभट्ट सूरिके और श्री कुमारपाल राजा श्री हेमचन्द्राचार्य के सदुपदेश से बोधको प्राप्त हुये थे । इन दोनोंका दृष्टान्त प्रसिद्ध ही है।
"थावच्चा पुत्रका संक्षिप्त दृष्टान्त"
"थावच्चा पुत्र द्वारिका नगरीमें बड़े रिद्धिवाले थावच्चा सार्थवाही का पुत्र और बत्तीस स्त्रियोंका पति था। वह भी नेमिनाथ स्वामीकी वाणी सुनकर बोधको प्राप्त हुवा। उसकी माताने बहुत मना किया तथापि वह न रुका। तब उसकी दीक्षाका महोत्सव करनेके लिए श्रीकृष्ण वासुदेव के पास चामर, छत्र, मुकुट वगैरह लेने के लिए उसकी माता गई। श्रीकृष्ण उसके घर आकर थावश्चा कुमारको कहने लगा कि तू इस यौवनावस्था में क्यों दीक्षा लेता है ? भुक्तभोगी होकर फिर दीक्षा लेना । उसने कहा भयभीत मनुष्य को भोग सुख कुछ स्वाद नहीं देते । श्रीकृष्णने पूछा- मेरे बैठे हुए तुझे किस बातका भय है ? उसने उत्तर दिया कि मृत्युका । यह बचन सुन उसको सत्य आग्रह जानकर श्रीकृष्णने स्वयं उसका दीक्षा महा