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श्राद्धविधि प्रकरण अञ्जनस्य क्षयं दृष्ट्वा । वाल्मीकस्य च बद्धनम् ॥
अवध्यं दिवसं कुर्या । दानाध्ययन कर्मसु ॥ आंखोंसे अञ्जन गया तथा बल्मिकी का बढ़ना देख कर-याने प्रातःकाल हुआ जान कर दान देना और नया अभ्यास करना, ऐसी करनियाँ करनेमें कोई दिन वंध्य न हो वैसे करना । अर्थात् कोई भी दिन दान और अभ्यासके विना न जाना चाहिये।
सन्तोष त्रिषु कर्तव्यः। स्वदारे भोजने धने ॥ .. त्रिषु चैव न कर्तव्यो। दाने चाध्ययने तपे॥२॥ ___ अपनी स्त्री, भोजन और धन इन तीन पदार्थों में सन्तोष करना। परन्तु दान, अध्ययन और तपमें सन्तोष न करना-ये तीनों ज्यों २ अधिक हों त्यों २ लाभदायक है।
. गृहीत इव केशेषु। मृत्युना धर्म माचरेत् ॥
अजरामरवत्लाज्ञो। विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ॥३॥ धर्मसाधन करते समय ऐसी बुद्धि रखना कि मानों यमराजने मेरे मस्तकके केश पकड़ लिये हैं अब वह छोड़नेवाला नहीं है, इसलिये जितना बने उतना जल्दी धर्म कर लू तो ठीक है। एवं विद्या तथा द्रव्य उपार्जन करते समय ऐसी बुद्धि रखना कि, मैं अजर अमर हूँ इस लिए जितना सीखा जाय उतना सीखते ही जाना। ऐसी बुद्धि न रखनेसे सीखा ही नहीं जाता। ...
जहजद्द सुभमवगाहई। अइसयरसापसरसञ्जयपुत्वं ॥
तहतह पत्तहाइमुखी। नव-नव सम्मेग सदाए ॥४॥ अतिशय रस-स्वादके विस्तारसे भरा हुवा, और आगे कभी न सीखा हुवा ऐसे नवीन ज्ञानके अभ्यास में ज्यों २ प्रवेश करे त्यों २ वह नया अभ्यासी मुनि नये २ प्रकारके सम्वेग-वैराग्य और श्रद्धासे भानन्दित होता है।
जोरह पढई अपुन्छ । स लहई तिथ्ययरच मन्नभवे॥
जो पुख पढिई परं । सम्मुम तस्स किं भणियो॥५॥ . बोप्राणी इस लोकमें निरन्तर अपूर्व अभ्यास करता है वह प्राणी आगामी भवमें तीर्थकरः पद पाता है। तथा जो जो स्वयं दूसरे शिष्यादिकों को सम्यक्त्व प्राप्त हो ऐसा ज्ञान पढ़ाता है उसे कितना बड़ा लाभ होगा इस विषयमें क्या कहें.१ यद्यपि बहुत ही कम बुद्धि थी तथापि नवा अभ्यास करनेमें उद्यम रखने से माष तुषादिक मुनियोंके समान उसी भवमें केवल शान आदिका लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इस लिये नया अभ्यास करनेमें निरन्तर प्रवृत्ति रखना श्रेयस्कर है। .
"द्रव्य उपार्जन विधि” जिन पूजा कर भोजन किये वाद यदि राजा प्रमुख हो तो कचहरीमें, दीवान प्रमुख बड़ा अधिकारी