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श्राद्धविधि प्रकरण
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मन्दिर का या ज्ञान द्रव्यका घर, दुकान भी श्रावकको निःशकता होनेके कारण से अपने कार्यके लिये भाड़े रखना भी योग्य नहीं । साधारण द्रव्य सम्बन्धि घर, दुकान, श्री संघ की अनुमतिले कदाचित् भाड़े रखना हो तो लोक व्यवहार से कम भाड़ा न देना और वह भाड़ा ठराव किये हुए दिनसे पहले बिना मांगे दे जाना । यदि उस घर या दुकान की भीत वगैरह पड़ती हो और वह यदि समारनी पड़े तो उसमें खर्च हुये दाम काट कर भाड़ा देना, परन्तु लौकिक व्यवहारकी अपेक्षा अपने ही लिए अपने ही काम आसके ऐसा उस घर दुकान में यदि नया माल या कुछ पोशीदा बांध काम करना पड़े तो उसमें लगाये हुए द्रव्यका साधारण द्रव्य भक्षण कियेका दोष लगने के सबबसे भाड़े में न काट लेना । शक्ति रहित श्रावक श्री संघकी आज्ञासे साधारण के घर दुकान में बिना भाड़े रहे तो उसे कुछ दोष नहीं लगता ।
तोर्थादिक में यदि बहुत दिन रहनेका कार्य हो और वहां उतरने के लिए अन्य स्थान न मिलता हो तो उसे उपयोग में लेनेके लिए लोकव्यवहार के अनुसार यर्थार्थ नकरा देना चाहिए। यदि लोकव्यवहार की रीति से कम भाड़ा दे तथापि दोष लगनेका सम्भव होता है । इस प्रकार पूरा नकरा दिये विना देव ज्ञान साधारण सम्बन्धो कपड़ा, वस्त्र, श्रीफल, सोना चांदि अट्टा, कलश, फूल, पक्त्रान; सूखड़ी वगैरह अपने घरके उजमने से या ज्ञानकी पूजामें न रखना। क्योंकि बड़े ठाठ माटसे जो अपने नामका उजमना किया हो उसमें कम नकरा देकर मन्दिरमें से लिए हुए उपकरणों द्वारा लोकमें बड़ी प्रशंसा होनेसे उलटा दोषका सम्भव होता है । परन्तु अधिक नकरा देकर उपकरण लिए हों तो उसमें कुछ दोष नहीं लगता ।
" कम नकरेसे किये उजमना लक्ष्मीवती का दृष्टान्त"
लक्ष्मीवती नामक श्राविकाने अत्यन्त ऋद्धिपात्र होने पर भी लोगोंमें अधिक प्रशंसा करानेके लिये थोड़े से नकरेसे देव, ज्ञानके उपकरण से विशेष आडंवर के कितनी एक दफा पुण्यकार्य किए। ऐसा करनेसे मैं देव द्रव्य ज्ञानकी अधिक वृद्धि करती हू और जैन शासनकी अत्यन्त उन्नति होती है इस बुद्धिसे उसने दूसरे लोगों को भी प्ररेणा की एवं कई दफा स्वयं भी अग्रेसरी बनकर पुण्यकार्य कराये । परन्तु थोड़े द्रव्यसे घणी प्रशंसा कराना, यह बुद्धि भी तुच्छ ही गिनी जाती है, इसका विचार न करके बहुत सी दफा ऐसी ही करनियां करके श्राविकापन की आराधना कर काल धर्म पाकर वह देवगति को प्राप्त हुई, परन्तु अपनी पुण्य करनियों में हीनबुद्धि का उपयोग करनेसे हीन शक्तिवाली देवी हुई। देवभव से व्यव कर जिसके घर अभी तक बिलकुल पुत्र हुवा ही नहीं ऐसे एक बड़े धनाढ्य व्यापारीके पुत्रीतया उत्पन्न हुई तथापि वह ऐसी कमनशीब हुई कि उसके माता पिताके मनमें निर्धारित मनोरथ मनमें ही रह गये । जब उस वालिकाको गर्भमें आये पांच महीने हुए तब उसके पिताका विवार था कि उसकी माता के पंचमासी सीमन्तका महोत्सव बड़े आडंबर से करे, परन्तु अकस्मात् उस समय परचक्र का ( किसी अन्य गांव राजाका ) भय आ पड़ा, इससे वह वैसा न कर सका। वैसे ही जन्मका, छठीका, नामस्थापन का 'न करानेका, अन्नप्राशन का, कर्णवेधन का, पाठशाला प्रवेश इत्यादिके महोत्सव करनेकी उसके दिलमें