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श्राद्धविधि प्रकरण विशेष फलदायक होता है, इसलिये फिरसे गुरु साक्षी प्रत्याख्यान करना। गुरु साक्षी किया हुवा धर्म कृत्य दृढ होता है । इससे जिनाशाका आराधन होता है। तथा गुरु वाक्यसे शुभ परिणाम अधिक होता है । शुभ परिणाम की अधिकतासे क्षयोपशम अधिक होता है । क्षयोपशम की अधिकतासे अधिक संवरकी प्राप्ति होती है और संवर ही धर्म है। इत्यादि परम्परासे गुणकी और लाभकी भी वृद्ध होती है। इसके लिए श्रावक प्रज्ञप्तिमें कहा है कि
संतंमि वि परिणाये । गुरुमूल पवज्जणंमि एसगुणो॥
दढया प्राणाकरणं । कम्मख्खनो वसमबुढूढी॥ प्रत्याख्यान करनेका परिणाम होनेपर भी गुरुके पास करनेसे अधिक गुणकी प्राप्ति होती है सो बत. लाते हैं । दृढता होती है, आज्ञा पालन होता है, विशेष कर्म खपते हैं, परिणामकी शुद्धि होती है, इत्यादि गुण गुरु समक्ष प्रत्याख्यान करनेसे होते हैं।
___ इसलिए दिनके और चौमासीके नियम प्रमुख गुरुकी जोगवाई हो तब गुरु साक्षी ही ग्रहण करना। ऐसा सब कार्योंमें समझ लेना । यहाँपर द्वादशावर्त वन्दना करनेका विधि बतलाया परन्तु उसमें पांच बन्दनाके नाम होनेसे मूल द्वारमें वाईस वन्दनामें चारसो बाणवे प्रति द्वारके स्वरूपसे प्रत्याख्यान का विधि और दस प्रत्याख्यान के नव द्वारोंसे १० प्रतिद्वारमय प्रत्याख्यान का सर्व विधि भाष्यसे जान लेना।
प्रत्याख्यान का स्वरूप प्रथमसे ही कुछ कहा हैं और प्रत्याख्यान के फल पर तो अविछिन्न छह मास तक आम्बिलका तप करनेसे बड़े व्यापारियों की, राजाकी और विद्याधरकी बड़ी समृद्धि सहित बत्तीस कन्याओंका पाणिग्रहण करने वाला धम्मिलकुमार आदिके समान इस लोकका फल और पर लोकके फल पाने वाला तथा महा हत्या करने वाले पापीने भी छ महीने तक अविछिन्न नियमसे तप करके उसी भवमें सिद्धि प्राप्त करने घाले दृढ प्रहारी जैसे अनेक दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं। शास्त्रोंमें कहा है कि,-प्रत्याख्यान करनेसे आश्रव-पाप द्वार दरवाजा बिलकुल बन्द हो जाता है। आस्रव द्वार रोकनेसे उसका विच्छेद अभाव होता है। आस्रवका उच्छेद होनेसे तृष्णाका नाश होता है । तृष्णाका नाश होनेसे प्राणीको बहुतसा समता भाव प्राप्त होता है। समता भाव प्राप्त होनेसे प्रत्याख्यान शुद्ध होता हैं। प्रत्याख्यान की शुद्धिसे चारित्र धर्मकी प्राप्ति होती है, चारित्र धर्मकी प्राप्तिसे कर्मकी निर्जरा होती है । कर्म निर्जरा होनेसे अपूर्व केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, केवल शानकी प्राप्तिसे शाश्वत सुख मोक्ष पदकी प्राप्ति होती हैं। इसलिए गुरुको वन्दन करे । साधु साध्वी, श्रावक श्राविका, एवं चतुर्विधि संघको नमस्कार करे । जब मन्दिर आदिमें गुरु महाराज पधारें तब श्रावकको खड़ा होने वगैरहसे मान देना चाहिए । तदर्थ शास्त्रमें लिखा है कि:
अभ्युत्थानं तदा लोके। भियानं च तदागमे ॥
शिरस्यं जलिसं श्लेषः। स्वययासन ढोकनं ॥ आचार्यादि को आते देख खड़ा होना, सन्मुख जाना, मस्तक पर अंजलीबद्ध प्रणाम करना, उन्हें आसन देना, उनके बैठ जाने वाद सन्मुख बैठना ।