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श्राद्धविधि प्रकरण बहुतसे श्रावक तीर्थ पर अमुक द्रव्य याने अमुक प्रमाण तक द्रव्य खर्च करनेकी कल्पना प्रथमसे ही कर लेते हैं और तीर्थयात्रा करते समय वे अपने सफरका खर्च भी उसी में गिन लेते हैं परन्तु ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।
__ श्रावक तीर्थयात्रा करने जाय उस वक्त भोजन खर्च, गाडी भाडा वगैरह, तीर्थ पर खर्च करनेके लिए निर्धारित द्रव्यमेंसे न गिनना चाहिए । तीर्थ में ही जितना पुण्य कार्यमें खर्चा हो उतना ही उसमें गिनना योग्य है । क्योंकि जो यात्राके लिए मान्य किया वह तो देवादिक द्रव्य हुवा, तव फिर उस द्रव्यमें अपने भोजन तथा गाड़ी भाडा वगैरहका खर्च गिनना सो कैसे योग्य कहा जाय ? वह तो केवल देव द्रब्यका उपभोग करनेके दोषका भागीदार हुवा । इस प्रकार अज्ञानता से या गैर समझसे यदि कहीं कुछ कभी देवादिक द्रव्य का उपभोग हुवा हो उसके प्रायश्चित्तमें जितना उपभोग किया गया हो उसके साथ कितना एक जुदा २ देव द्रव्यमें, ज्ञान-द्रव्यमें और साधारण द्रव्यमें फिरसे खर्चना तथा अन्तिम अवस्थामें तो विशेषतः ऐसे खर्चना कि, पूर्व में जो धर्म कृत्य किये हों उनमें यदि कदापि भूल चूकसे किसी क्षेत्रका द्रव्य किसी दूसरे क्षेत्रमें या अपने उपभोगमें खर्च किया गया हो तो उसके बदलेमें इतना द्रव्य देव द्रव्यमें इतन ज्ञान द्रव्यमें और इतना साधारण द्रव्यम देता हूं यों कह कर उतना वापिस दे दे। धर्मके स्थानमें एवं अन्य स्थानमें कदापि विशेष खर्चनेकी शक्ति न हो तो थोड़ा २ खर्चना परन्तु सांसारिक, धार्मिक ऋण तो सिर पर कदापि न रखना। सांसारिक ऋणकी अपेक्षा भी धार्मिक ऋण प्रथमसे ही देना योग्य है। साधारण धार्मिक अपेक्षा से भी देवादिक ऋण तो विशेषतः पहले ही चुकता करना। कहा है कि,
ऋणं कतणं नैव । धार्यमाणेन कुत्रचित् ॥
देवादि विषयं तस्तु । कः कुर्यादतिदुःसहं॥ ऋण तो फभी क्षणबार भी अपने सिर न रखना तब फिर अत्यन्त दुःसह्य देवका, ज्ञानका, साधारण का, और गुरुका ऋण ऐसा कौन मूर्ख है जो अपने सिर रख्खे ? इसलिए धर्मके सब कार्योंमें विवेक पूर्वक हिस्सा करके जो अपने पर रहा हुवा कर्ज हो वह दे देना चाहिये।
"प्रत्याख्यानका विधि" उपरोक्त रीति मुजब जिनेश्वर देवको पूजा करके फिर पंचाचार गुरु आचार्यके पास जाकर विधि पूर्वक प्रत्याख्यान करे । पंचाचार ज्ञाना चारादिक 'काले विणये बहुमाणे इत्यादिक जो आगममें कहे हैं उस पंचा. चारका स्वरूप हमारे किये हुए आवारप्रदीप नामक ग्रन्थसे जान लेना।
प्रत्याख्यान-आत्मसाक्षी, देवसाक्षी और गुरुसाक्षोएवं तीन प्रकारसे किया जाता है उसका विधिवतलाते हैं। मन्दिरमें देवाधिदेव को वन्दन करने आये हुए, स्तात्रादिक के दर्शन निमित्त आये हुए, धर्म देशना करने आये हुए, अथवा मन्दिरके पास रहे हुए उपाश्रय प्रमुख में आ रहे हुए सद्गुरुके पास मन्दिर में प्रवेश करते समय संभालने की तीन निःसिही के समान गुरुके उपाश्रय में प्रवेश करते हुए भी तीन ही निःसिही और पंच अभिगम (जो पहिले बतलाए गए हैं ) संभाल कर यथाविधि आकर धमोपदेश दिये बाद प्रत्याख्यान लेना।