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श्राद्धविधि प्रकरण
१८३ वह द्रव्य न रखना । मुखपट्टीके मूल्यसे कुछ अधिक मूल्य दिये विना साधुकी मुखपट्टी वगैरह भी श्रावकको लेना उचित नहीं। क्योंकि वह सब कुछ गुरु द्रव्यमें गिना जाता है । स्थापनाचार्य तथा नवकार वाली वगैरह गुरुकी भी श्रावकके उपयोगमें आती है। क्योंकि जब ये वस्तुयें गुरुको देने में आती हैं उस वक्त देनेवाला ये सबके उपयोगमें आयेंगो इस कल्पना पूर्वक ही देता हैं। तथा साधु भी सबको उपयोगी हों इसी वास्ते उन वस्तुओंको लेता है। इसलिए साधुकी गुरु स्थापना तथा नवकार वाली सबको खपती है परन्तु मुहपट्टी नहीं खपती। - गुरुकी आज्ञा बिना साधु साध्वीको लेखकके पास पुस्तक लिखाना या वस्त्र दिलाना नहीं कल्पता। ऐसी कितनी एक बातें बहुत ध्यानमें रखने लायक हैं । यदि जरा मात्र भी देवव्य अपने उपभोग में लिया हो तो उतने मात्रसे अत्यन्त दारुण दुःख भोगने पड़ते हैं, इसलिए विवेकी पुरुषको सर्वथा उसे उपयोगमें लेनेका विचार तक भी न करना चाहिए। इसलिए माला उजवनेका, माला पहरने का, या लूछना वगैरहमें जो दृब्य देना हो वह उसो वक्त दे देना चाहिए। यदि वैसा न बने तथापि ज्यों जल्दी हो त्यों दे देना चाहिए । उससे अधिक गुण होता है । यदि विलम्ब करे तो फिर देनेकी शक्ति न रहे या कदापि मृत्यु ही आजाय तो वह देना रह जानेसे परलोकमें दुर्गतिकी प्राप्ति हो जाती है।
“देना सिर रखनेसे लगते हुए दोष पर महीषका दृष्टान्त" सुना जाता है कि, महापुर नगरमें बड़ा धनाढ्य व्यापारी ऋषभदत्त नामक शेठ परम श्रावक था। वह पर्वके दिन मन्दिर गया था। वहां उस वक्त उसके पास नगद द्रव्य न था, इससे उसने उधार लेकर प्रभावना की। घर आये बाद अपने गृहकार्य की व्यग्रतासे वह द्रव्य न दिया गया। एक दफा नशीब योगसे उसके घर पर डाका पड़ा उसमें उसका सब धन लुट गया । उस वक्त वह हाथमें हथियार ले लुटेरोंके सामने गया। इससे लुटेरोंने उसे शस्त्रसे मार डाला। शस्त्राधा से आर्तध्यान में मृत्यु पाकर उसी नगरमें एक निर्दय और दरिद्री पखालीके घर (सक्केके घर ) भैंसा हुवा । वह प्रतिदिन पानी ढोने वगैरह का काम करता है । वह गाम बड़े ऊंचे पर था और गांवके समीप नदी नीचे प्रदेशमें थी। अब उसे रात दिन नदीमें से नीचेसे ऊपर पानी ढोना पड़ता था, इससे उसे बड़ा दुःख सहन करना पड़ता। भूख प्यास सहन करके शक्तिसे उपरांत पानी उठाकर ऊंचे चढ़ते हुए वह पखाली उसे निर्दय होकर मारता है, वह सर्व कष्ट सहन करना पड़ता है। ऐसे करते हुये बहुतसा समय व्यतीत हुवा। एक समय किसी एक नवीन तैयार हुए मन्दिरका किला बन्धता था, उस कार्यके लिए पानी लाते समय आते जाते मन्दिरकी प्रतिमा देखकर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुवा । अब उसका मालिक उसे बहुत ही मारता पीटता है तथापि वह पूर्व भव याद आनेसे उस मन्दिरका दरवाजा न छोड़कर वहां ही खड़ा होगया। इससे वहां मन्दिरके पास खड़े हुए उस भैंसेंको मारते पीटते देख किसी ज्ञानी साधुने उसके पूर्व भवका समाचार सुनाया इससे उसके पुत्र, पौत्रादिक ने वहां आकर पखालीको अपने पिताके जीव भैसेका धन देकर छुड़ाया, और पूर्व भवका जितना कर्ज था उससे हजार गुना देकर उसे कर्ज