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श्राद्धविधि प्रकरण मुक्त किया। फिर अनशन आराध कर वह स्वर्गमें गया और अनुक्रमसे मोक्ष पदको प्राप्त होगा। इसलिए अपने सिर कर्ज न रखना चाहिए। बिलम्ब करनेसे ऐसी आपत्तियां आ पड़ती हैं।
देवका, ज्ञानका, और साधारण वगैरह धर्मसम्बन्धी देना तो क्षण वार भी न रखना चाहिए, जब अन्य किसीका भी देना देने में विवेकी पुरुषको विलम्ब न करना चाहिए तब फिर देवका, ज्ञानका या साधारण वगैरहका देना देते हुए किस तरह विलम्ब किया जाय ? जिस वक्तसे देवका कबूल किया उस वक्तसे ही वह दृव्य उसका हो चुका, फिर जिती देर लगाये उतना ब्याजका दब्य देना चाहिए। यदि ऐसा न करे तो जितना ब्याज हुवा उतना दुव्य उसमेंसे भोगनेका दूषण लगता है। इसलिए जो देनेका कबूल किया है वह तुरन्त ही दे देना उचित है। कदापि ऐसा न बन सके और कितने एक दिन बाद दिया जाय ऐसा हो तो वह कबूल करते समय ही प्रथमसे यह साफ कह देना चाहिए कि, मैं इतने दिनमें, या इतने पक्ष बाद या इसने महिनोंमें दूंगा। कबूलकी हुई अवधिके अन्दर दे दिया जाय तो ठीक! यदि वैसा न बने तो अन्तमें अवधि आधे तुरन्त दे देना योय है। कही हुई मुदत उल्लंघन करे तो देवदव्य का दोष लगता है। मन्दिरकी सारसंभाल रखनेवाले को अपने घरके समान ही देवदव्य की उघरानी शीघ्र वसूल करानी चाहिए। यदि ऐसा न करे तो बहुत दिन हो जानेसे अकाल पड़े या कोई बड़ा उपद्व आ पड़े तो फिर बहुतसे प्रयाससे भी उस देवदब्यके दोषमें से देनदारको मुक्त होना मुश्किल हो जाता है इसलिए देव द्रव्यके देने से सबको शीघ्रतर मुक्त करना । ऐसा न हो तो परंपरासे सारसम्भाल करनेवाले को एवं दूसरे मनुष्योंको भी महादोष की प्राप्ति होती है।
"देवद्रव्य संभालनेवालेको दोष लगने पर दृष्टान्त" महिन्दपुर नगरके प्रभुके मन्दिर सम्बन्धि चन्दन, पुष्प, फल, नैवेद्य, घी दीपकके लिए तेल, मन्दिर भंडार और पूजाके उपकरण सम्भालना, मन्दिरमें रंग कराना, उसे साफ करवाना, तदर्थ नौकर रखना, नौकरोंकी सार सम्भाल रखना, उघरानी कराना, वसूलान जमा कराना, खाता डालना, खाता वसूल कराना, हिसाब करना, कराना, वसूलात आये तो उसका धन सम्भालना, उसके आय व्ययका नावाँ ठावाँ लिखना, तथा नया काम करानेका जुदा २ काम चार जनोंको सोंपा था। तथा उन पर एक अधिकारी नियुक्त किया गया था। श्रीसंघकी अनुमति पूर्वक चार जने समान रीतिसे सारसंभाल करते थे। ऐसा करते हुए एक समय मन्दिरकी सारसरभाल करनेवाला बड़ा अधिकारी वसूलात करनेमें बहुतसे लोगोंके यथा तथा बचन सुननेसे अपने मनमें दुःख लगाके कारण अब वसूलात वगैरहके कार्यमें निरादर हो मया। इससे उसके हाथनीचे के चारों जने बिलकुल ढीले हो गए। इतनेमें ही उस देशमें कुछ बड़ा उपदव होनेसे सब लोग अन्य भी चले गए इससे कितना एक देवदव्य नष्ट हो गया। उसके पापसे वे असंख्य भव भमे। इसलिए धर्मादे के कार्यमें कभी भी शिथिलादर होना उचित नहीं।
देव वगैरहके देने में खरा दब्य देना तथा भगवानके सन्मुख भी खरा ही द्रव्य चढाना, घिसा हुवा या खोटा दल्य न वढामा। यदि खोटा चढावे या देवके देनेमें दे तो उसे देवदव्य के उपभोगका दोष लगता है।