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श्राद्धविधि प्रकरण संभव बने, थोडे समय की की हुई भूमिमें, विस्तीर्ण भूमिमें जघन्यसे एक हाथकी जमीनमें, जघन्यसे भी चार अंगुल जमीन अग्नि तापादिकसे अचित हुई हो ऐसे स्थानमें, अतिशय आसन्न याने नजीक न हो (द्रव्यसे धवल घर आरामादिकके नजीक न हो और भावसे यदि अत्यन्त हाजत हुई हो तो वैसे स्थानके पास भी त्याग करे ) विल वर्जित स्थानमें, बीज, सब्जी, प्रस जीव रहित स्थानमें ऐसे स्थानमें मल मूत्रका त्याग करे।
दिसि पवण ग्राम सूरिय । छायाई पमाजिऊणतिखुत्तो॥
जस्सग्गहुत्ति काउण वोसिरे आयमि सुद्धाए ॥३॥ दिशी, पवन, ग्राम, सूर्य, छाया आदिकी सन्मुखताको वर्ज कर एवं जमीनको शुद्ध करके तीन दफा "अणुजाणह जस्सगो" ऐसा पाठ कहकर शरीरकी शुद्धिके लिए मलमूत्रादि विसर्जन करे।
उत्तर पुव्वा पुज्जा । जम्माए निसिभरा महिवडंति ॥
घाणारिसाय पवणे। मूरिभ गाये प्रवन्नोन ॥४॥ उत्तर, और पूर्व दिशा पूज्य है, अतः उनके सन्मुख मल मूत्र न करना । दक्षिण दिशाके सामने बैठने भूत पिशाचादिका भय होता है । पवन सन्मुख बैठने नासिकामें पवन आनेसे रोगकी वृद्धि होती है । सूर्य तथा गामके सन्मुख बैठनेसे उसकी आसातना होती है।
संसत्ताहणीपुण । छायाए निग्गयाइ वोसिरई।
छायासइ उन्हमिवि । वोसिरिम मुहुत्गं चिढ़े ॥५॥ छायामें जानेसे बहुतसे जीवोंका संशय रहता है, इसलिये छायाकी अपेक्षा तापमें विसर्जन करना योग्य है । ताप होने पर भी जहां छाया आने वाली हो वैसे स्थानमें बैठे तो दो घड़ी तक तलाश रखना।
मुत्त निरोहे चख्खु । वञ्च निरोहे म जीवियं चयई॥
उढ्ढ निरोहे कुठंगे। लनवा भवे तिसुवि ॥६॥ मूत्र रोकने से चक्षुतेज नष्ट होता है; मल रोकने से मनुष्य जीवितव्य से रहित होता है, श्वास (ऊध्व वायु) को रोकने से कोढ होता है और इन तीनोंको रोकने से बीमारी की प्राप्ति होती है। इसलिये किसी भी अवस्थामें मलमूत्रको न रोकना श्रेयकारी है।।
मलमूत्र, थूक, खकार, श्लेष्म आदि जहां डालना हो वहां पहलेसे 'अणुज्जाणह अस्सगो' ऐसा कह कर त्यागना; और त्यागेवाद तत्काल तीन दफा मनमें वोसरे शब्द चिंतन करना, श्लेष्म आदिको तो तत्काल धूल, राख वगैरहसे यतनापूर्वक ढक देना चाहिये। यदि ऐसा न किया जाय और वह खुलाही पड़ा रहे उसमें तत्कालही असंख्य समूच्छिम ( माता पिताके संयोग विना पैदा होने वाले नव प्राण वाले मनुष्य ) तथा वे. इन्द्रियादिक जीव उत्पन्न हों और उनका नाश होनेका संभव है। इसलिये पनवणा सूत्रके प्रथम पदमें कहा है कि, "हे भगवन् ! समुच्छिम मनुष्य कहां पैदा होते हैं ?” (उत्तर) 'हे गौतम! मनुष्यक्षेत्रमें ४५ लाख योजन में अढीद्वीपमें जो द्वीपसमुद्र हैं उनमें पन्द्रह कर्मभूमि (जहाँपर असि, मसि कृषी कर्म करके लोग