________________
श्राद्धविधि प्रकरण
१४३ सारा शरीर चित्रित किया और वह राजाको समर्पण किया। राजा उस चित्रको देख प्रसन्न हुवा परंतु उस चित्र मूर्तिको गौरसे देखते हुए राजाकी दृष्टि जंघापर पड़ी, चित्र-चित्रित मूर्तिकी जंघापर एक बारीक तिल दीख पड़ा। सचमुच ऐसा ही तिल रानीकी जंघापर भी था। यह देख राजाको शंका पैदा हुई इससे उसने चित्रकारको मार डालनेकी आज्ञा फर्मायी। यह सुनकर उस गांवके तमाम चित्रकार राजाके पास जाकर कहने लगे कि स्वामिन् ! इसे यक्षने वरदान दिया हुवा है कि जिसका एक अंश-अंग देखे उसका सम्पूर्ण अंग चित्रित कर सकता है। यह सुन राजाने उसकी परीक्षा करनेके लिए पडदेमें से एक कुबड़ी दासीका अंगूठा दिखलाकर उसका चित्र चित्रित कर लानेकी आज्ञा दी। उसने यथार्थ अंग चित्रित कर दिया तथापि राजाने उसका दाहिना हाथ काट डालनेकी आज्ञा दी। अब उस चित्रकारने दाहिने हाथसे रहित हो उसी यक्षराजके पास जाकर वैसा ही वित्र बांये हाथसे चितरनेकी कलाकी याचना की, यक्षने भी उसे वह वरदान दिया। अब उसने अपने हाथ काटनेके वैरका बदला लेनेके लिए मृगावतीका चित्र चित्रकर चंडप्रद्योतन राजाको दिखला कर उसे उत्तेजित किया। चंडप्रद्योतन ने मृगावतीके रूपमें आसक्त हो कौशाम्बीके शतानिक राजको दूत भेजकर कहलाया कि, तेरी मृगावती रानीको मुझे समर्पण करदे । अन्यथा जबरदस्तीसे भी मैं उसे अंगीकार करूंगा। शतानिकने यह बात नामंजूर की, अन्तमें चन्डप्रद्योतन राजाने बड़े लष्करके साथ आकर कोशाम्बी नगरीको वेष्टित कर लिया। शतानिक राजा इसी युद्ध में हो मरणके शरण हुवा । चन्डप्रद्योतन ने मृगावतीसे कहलाया कि, अब तुम मेरे साथ प्रेम पूर्वक चलो । उसने कहलाया कि, मैं तुम्हारे बशमें ही हूं, परन्तु आपके सैनिकोंने मेरी नगरीका किला तोड़ डाला है यदि उसे उज्जयिनी नगरीसे ईटें मंगाकर पुनः तयार करा दें, और मेरी नगरीमें अन्नपानीका सुभीता कर दें तो मैं आपके साथ आती हूं। चन्डप्रद्योतन ने बाहर रहकर यह सब कुछ करा दिया। इतनेमें ही वहांपर भगवान महावीर स्वामी आ समवसरे । यह समाचार मिलते ही मृगावती रानी, वन्डप्रद्योतन राजा आदि उन्हें वंदन करनेको आये । इस समय एक भीलने आकर भगवानसे पूछा कि, 'या सा' भगवन्तने उत्तर दिया कि 'सा सा' तदनन्तर आश्चर्य पाकर उसने उत्तर पूछा भगवानने यथावस्थित सम्बन्ध कहा; वह सुनकर वैराग्य पाकर मृगावती, अंगारवती, तथा प्रद्योतनकी आठों रानियोंने प्रभुके पास दीक्षा अंगीकार की।
जब अविधिसे ऐसा अनर्थ होता है तब फिर वैसा करनेसे न करना हो अच्छा है, ऐसी धारना न करना; क्योंकि शास्त्रमें कहा है --
अविहिकय वरणकयं । अस्सुय वयणं भणन्ति समयन्नु ।
पायच्छितं अकए गरुनं । वितहं कए लहु यं ॥१॥ अविधिसे करना इससे न करना ठीक है ऐसा बोलने वालेको जैन शास्त्रका अभिप्राय मालूम नहीं; इसीसे वह ऐसा बोलता है। क्योंकि, प्रायश्चित्त बिधानमें ऐसा है कि, जिसने विलकुल नहीं किया उसे बड़ा • भारी प्रायश्चित्त आता है। और जिसने किया तो सही परन्तु अविधिसे किया है उसे अल्प प्रायश्चित्त आता है, इसलिए सर्वथा न करनेकी अपेक्षा अविधिसे करना भी कुछ अच्छा है। अतः धर्मानुष्ठान प्रतिदिन करते