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श्राद्धविधि प्रकरण (१) सच्ची चांदी और सच्चा सिक्का, (२) सच्ची चांदी और असत्य सिक्का, (३) सच्चा सिक्का परन्तु खोटी चांदी, (४) खोटा सिक्का और चांदी भी खोटी।
(१) देवपूजामें भी सच्चा बहुमान और सञ्चा विधि यह पहला भंग समझना। (२) सच्चा बहुमान है परन्तु विधि सञ्चा नहीं है यह दूसरा भंग समझना । (३) सच्चा विधि है परन्तु सम्यक् बहुमान नहीं-आदर नहीं है, यह तीसरा भंग समझना। (४) सच्चा विधि भी नहीं और सम्यक् बहुमान भी नहीं, यह चौथा भंग समझना।
ऊपर लिखे हुये भंगोंमेंसे प्रथम और द्वितीय यथानुक्रम लाभकारी हैं। और तीसरा एवं चौथा भंग बिलकुल सेवन करने लायक नहीं। ___ इसी कारण बृहद् भाष्यमें कहा है कि, वन्दनके अधिकारमें (भाव पूजामें ) चांदीके समान मनसे बहुमान समझना, और सिक्के के समान बाहरकी तमाम क्रियायें समझना। बहुमान और क्रिया इन दोनोंका संयोग मिलनेसे बन्दना सत्य समझना । जैसे चांदी और सिक्का सत्य हो तब ही वह रुपया बराबर चलता है, वैसे ही बन्दना भी बहुमान और क्रिया इन दोनोंके होनेसे सत्य समझना। दूसरे भंग समान बन्दना प्रमादिकी क्रिया उसमें बहुमान अत्यन्त हो परन्तु क्रिया शुद्ध नहीं तथापि वह मानने योग्य है । क्योंकि बहुमान ही कभी न कभी शुद्ध क्रिया करा सकता है। यह दूसरे भंग समान समझना। कोई किसी वस्तुके लाभके निमित्तसे क्रिया अखण्ड करता है परन्तु अन्तरंग बहुमान नहीं, इससे तीसरे भंगकी बन्दना किसी कामकी नहीं। क्योंकि भाव रहित केवल क्रिया किस कामकी ? वह तो मात्र लोगोंको दिखलाने रूप ही गिनी जाती है, इसलिये उस नाम मात्रकी क्रियासे आत्माको कुछ भी लाभ नहीं होता। चौथा भंग भी किसी कामका नहीं है, क्योंकि अन्तरंग बहुमान भी नहीं और क्रिया भी शुद्ध नहीं। इस चौथे भंगको तत्वसे बिचारे तो यह बन्दना ही न गिनी जाय । देशकालके अनुसार थोड़ा या घना विधि और बहुमान संयुक्त भावस्तव करना तथा जिनशासन में १ प्रीति अनुष्ठान, २ भक्ति अनुष्ठान, ३ बचन अनुष्ठान, ४ असंग अनुष्ठान, ऐसे चार प्रकारके अनुष्ठान कहे हैं। भद्रक प्रकृति-स्वभाव वाले जीवको जो कुछ कार्य करते हुये प्रीतिका आस्वाद उत्पन्न होता है, बालकादि को जैसे रत्न पर प्रोति उत्पन्न होती है वैसे ही प्रोति अनुष्ठान समझना । शुद्ध विवेकवान् भव्य प्राणिको क्रिया पर अधिक बहुमान होनेले भक्ति सहित जो प्रीति उत्पन्न होती है उसे भक्ति अनुष्ठान कहा है । दोनोंमें (प्रीति और भक्ति अनुष्ठानमें ) परिपालना-लेने देनेकी क्रिया सरीखी ही हैं, परन्तु जैसे स्त्रीमें प्रीति-राग और मातामें भक्तिराग ऐसे दोनोंमें भिन्न २ प्रकारका अनुराग होता है वैसे ही प्रीति और भक्ति अनुष्ठान में भी उतना ही भेद समझना। सूत्रमें कहे हुये विधिके अनुसार ही जिनेश्वर देवके गुणोंको जाने तथा प्रशंसा करे, चैत्यवन्दन, देववन्दन, आदि सब सूत्रमें कही रीति मुजब करे, उसे बचनानुष्ठान कहते हैं। परन्तु यह बचनानुष्ठान प्रायः चारित्रवान को ही होता है। सूत्र सिद्धान्त को स्मरण किये बिना भी मात्र अभ्यास की एक तल्लीनता से फलकी इच्छा न रखकर जो क्रिया हुवा करती है, जिन कल्पी या वीतराग संयमीके समान, निपुण बुद्धि वालोंका वह ववनानुष्ठान समझना चाहिये। जो कुम्भकार के चक्रका भ्रमण है,