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श्राद्धविधि प्रकरण उसका आराधन करने लगा। अपना दुःखा निवेदन करके उसका ध्यान धरके बैठे हुए जब उसे इक्कीस उपवास होगये तब तुष्टमान होकर यक्षने पूछा मेरी आराधना क्यों करता है ? । तब उसने अपने दुर्भाग्य का वृत्तान्त सुनाते हुये कहा-“अगर कुन्दन उठाता हूं तो मिट्टो हाथ आती है ! कभी रस्सीको छूता हूं तो वह भी काट खाती है !” उसका वृत्तान्त सुन यक्ष बोला-"यदि तू धनका आर्थी है तो मेरे इस मन्दिरके पीछे प्रतिदिन एक सुवर्ण मयूर ( सोनेकी पांख वाला मोर) सन्ध्या समय नृत्य करेगा वह अपने सोनेके पिच्छ जमीन पर डालेगा उन्हें तू उठा लेना और उनसे तेरा दारिद्रय दूर होगा। यह वचन सुनकर वह अत्यन्त खुशी हुवा । फिर सन्ध्याके समय मन्दिरके पीछे गया और वहां जितने सुवर्णके मयूरपिच्छ पड़े थे सो सब उठा लिए । इस तरह प्रति दिन सन्ध्या समय मन्दिरके पीछे जाता है, मोरका एक एक सुवर्ण विच्छ पड़ा हुवा उठा लाता है । ऐसा करते हुए जब नव सौ सुवर्ण पिच्छ इकट्ठे होगये तब कुबुद्धि आनेसे वह विचा. रने लगा कि अभी इसमें एक सौ पिच्छ बाकी मालूम देते हैं वे सब पड़ते हुए तो अभी तीन महीने चाहिये । अब मैं कब तक यहां जंगलमें बैठा रहूं । यह पिच्छ सब मेरे लिये ही हैं तब फिर मुझे एकदम लेनेमें क्या हर. कत है ? आज तो एक ही मुट्ठीसे उन सब पिच्छोंको उखाड़ लूं ऐसा विचार कर जब वह उठ कर सन्ध्या समय उसके पास आता है तब वह सुवर्ण मयूर अकस्मात् काला कौवा बनकर उड़ गया अब वह पहले ग्रहण किये हुये सुवर्ण मयूर पिच्छोंको देखता है तो उनका भी पता नहीं मिलता। कहा है कि,:
दवमुल्लंध्य यत्कार्य । क्रियते फलवन्नतत् ॥
सरोंभश्चातकेना। गलरंध्रण गच्छति ॥ नशीबके सामने होकर जो कार्य किया जाता है उसमें कुछ भी फल नहीं मिल सकता । जैसे कि,:चातक तलावमेंसे पानी पीता है परन्तु वह पानी उसके गलेमें रहे हुए छिद्रमेंसे बाहर निकल जाता है।
अब वह विचारने लगा कि, “मुझे धिःकार हो, मैंने मूर्खतासे व्यर्थ हो उतावल की, अन्यथा ये सब ही सुवर्ण पिच्छ मुझे मिलते। परन्तु अब क्या किया जाय ? "उदास होकर इधर उधर भटकते हुए उसे एक ज्ञानी गुरु मिले। उन्हें नमस्कार कर अपने पूर्व भवमें किये हुये कर्मका स्वरूप पूछने लगा। मुनिराजने सागर शेठके भवसे लेकर यथानुभूत सवस्वरूप कह सुनाया। उसने अत्यन्त (श्चात्ताप पूर्वक देवव्य भक्षण किये का प्रायश्चित्त मांगा। मुनिराजने कहा कि, जितना देवदव्य तूने भक्षण किया है उससे कितना एक अधिक वापिस दे और अबसे फिर देवदव्यका यथाविधि सावधान तया रक्षण कर, तथा देव द्रव्य वगैरह की ज्यों वृद्धि हो वैसी प्रवृत्ति कर ! इससे तेरा सर्व कर्म दूर होजायगा । तुझे सर्व प्रकार सुख भोगकी संपदाकी प्राप्ति होगी, इसका यही उपाय है। तत्पश्चात उसने जितना दव्य भक्षण किया था उससे एक हजार गुना अधिक दव्य जब तक पीछे न दे सकू तब तक निर्वाह मात्र भोजन, बस्त्रसे उपरान्त अपने पास अधिक कुछ भी न रक्खूगा, मुनिराजके समक्ष यह नियम ग्रहण किया, और इसके साथ ही निर्मल श्रावक व्रत अंगीकार किये, अब बह जहां जाकर व्यापार करता है वहां सर्व प्रकारसे उसे लाभ होने लगा। ज्यों २ द्रव्यका लाभ होने लगा त्यों २ वह देव द्रव्यके देनेमें समर्पण करता जाता है। ऐसे हजार कांकनी जितना देवद्रव्य भक्षण